Suit for public nuisance and wrongful acts affecting the public. Section 91-93 CPC.
लोक- अपदूषण एवं लोक को प्रभावित करने वाले अन्य दुष्कृतिजन्य कार्यों के लिए वाद-( धारा 91 से 93 सी.पी.सी.)
सिविल प्रक्रिया संहिता में लोक विषय संबंधी दो प्रकार के वादों का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है-
(1) लोक अपदूषण एवं लोक को प्रभावित करने वाले अन्य दुष्कृतिजन्य कार्यों के लिए वाद; एवं
(2) लोक पूर्त से संबंधित वाद।
धारा 91 सिविल प्रक्रिया संहिता- लोक न्यूसेंस और लोक पर प्रभाव डालने वाले अन्य दोषपूर्ण कार्य-(1) लोक न्यूसेंस या अन्य ऐसे दोषपूर्ण कार्य की दशा में जिससे लोक पर प्रभाव पड़ता है या प्रभाव पड़ना संभव है, घोषणा और व्यादेश के लिए या ऐसे अन्य अनुतोष के लिए जो मामले की परिस्थितियों में समुचित हो वाद-
( क) महाधिवक्ता द्वारा, या
( ख) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा, ऐसे लोक न्यूसेंस या अन्य दोषपूर्ण कार्य के कारण ऐसे व्यक्तियों को विशेष नुकसान ना होने पर भी न्यायालय की इजाजत से, संस्थित किया जा सकेगा।
(2) इस धारा की कोई भी बात वाद के किसी ऐसे अधिकार को परिसीमित करने वाली या उस पर अन्यथा प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी, जिसका अस्तित्व इस के उपबंधों से स्वतंत्र है।
आपकी सुविधा के लिए हमारी website का APP DOWNLOAD करने के लिए यह क्लीक करे -
लोक अपदूषण ऐसा कार्य या अवैध कार्य लोप है जिससे की जनता को या उन लोगों को जो साधारणतया सामीप्य मैं रहते हैं या संपत्ति पर दखल रखते हैं, कोई सामान्य क्षती, संकट या क्लेश होता है या जिससे उन लोगों को जिन्हें किसी सार्वजनिक अधिकार के उपयोग में लाने का अवसर आए, क्षति, संकट बाधा या क्लेश होना अवयश्यम्भावी है।
ऐसे कार्यों को जो कि सर्वसाधारण के स्वास्थ्य रक्षा या उनकी सुविधा को बुरी तरह प्रभावित करते हैं या जो कि लोक सदाचार को नीचे गिर आते हैं, सदैव लोक न्यूसेंस माना गया है। किसी नगर के पास बारूद की मील बनाना या बारूद का ढेर लगाना या किसी राजमार्ग के समीप पत्थर का स्पोटन करना, आबादी के बीच में रात्रि में चावल कूटने की मशीन चलाना, आबादी के बीच में लकड़ी चीरने की आरा मशीन, अवयस्थित सराय और जुआघर खोलना और सार्वजनिक स्थानों में अभद्रता के कार्य करना आदि लोकअपदूषण की श्रेणी में आते हैं।
लोक न्यूसेंस के विरुद्ध वाद, महाधिवक्ता या न्यायालय की अनुमति से दो या दो से अधिक व्यक्ति, चाहे उन्हें कोई विशेष नुकसान न भी हुआ हो वाद ला सकेंगे।
लोक -पूर्त संबंधित वाद (धारा 92 एवं धारा 93)
लोक -पूर्त संबंधित वाद ऐसे वाद होते हैं जिनका संबंध किसी पूर्त या धार्मिक स्वरूप के लोक प्रयोजन के लिए सृष्ट किसी अभिव्यक्त या उपलक्षित न्यास की भंगता से होता है और जहां ऐसे न्यास के प्रशासन के लिए न्यायालय के निर्देश की आवश्यकता होती है।
लोक -पूर्त संबंधित वादो के प्रकार -
( 1) किसी न्यासधारी को हटाने के लिए:
(2) किसी नए न्यासधारी की नियुक्ति के लिए;
(3) न्यासधारी मैं किसी संपत्ति को निहित किए जाने के लिए;
(4) हटाए गए न्यासधारी से न्यास की संपत्ति का कब्जा नए न्यासधारी को प्रेरित करने के लिए;
(5) न्यास के लेखों एवं जांचो के लिए;
(6) इस घोषणा के लिए की न्यास संपत्ति या उसमें के हित का कौन सा समानुपात ब्याज के किसी विशेष उद्देश्य के लिए निर्धारित किया जाएगा;
(7) संपूर्ण न्यास संपत्ति के या उसके किसी भाग के पट्टे पर उठाने, बेचने, बंधक करने या विनिमय करना को अधिकृत करने के लिए;
(8) प्रबंध की योजना को निश्चित करने के लिए;
लोक -पूर्त संबंधित वाद संस्थित किया जा सकेगा।
इस धारा के अधीन कोई वाद -
( 1) महाधिवक्ता द्वारा, अन्यथा
( 2) न्यायालय की अनुमति से ऐसे न्यास में हित रखने वाले दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा संस्थित किया जा सकेगा।
धारा 93 के अनुसार - महाधिवक्ता को धारा 91 और धारा 92 द्वारा प्रदत शक्तियों का प्रयोग प्रेसिडेंसी नगरों से बाहर राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी से कलेक्टर या ऐसा अधिकारी भी कर सकेगा किसी राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त नियुक्त करें।
इस प्रकार सिविल प्रक्रिया संहिता में लोक न्यूसेंस और लोक पर प्रभाव डालने वाले अन्य दोषपूर्ण कार्य के शीर्षक से धारा 91 से 93 उपबंधित की गई है। इसका संपूर्ण विवेचन विभिन्न न्यायालयों द्वारा पारित न्यायिक निर्णय सहित किया जा रहा है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय-
( 1) धारा 92 के अधीन वाद में नयासियों ने अन्य न्यासियों के विरुद्ध व्यक्तिगत अनुतोष चाहा। विचारण न्यायालय का आदेश की ऐसा वाद पोषणीय नहीं है। जैसा कि इस आदेश से वाद का अंतिम निपटारा हो गया ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय है।
2007 (2) WLC (SC) 266
(2) धारा 92 के अंतर्गत वाद पोषणीय करना याचिका का उद्देश्य एवं प्रयोजन है तथा अनुतोष नहीं जो तात्विक है।
2008 (1) C.C.C. 397 (SC)
(3) धारा 92 के अंतर्गत दुर्व्यवस्था के लिए मंदिर के न्यासधारीगण के विरुद्ध वाद का योजन एवं तदर्थ अनुज्ञा की ईप्सा करते हुए आवेदन का लंबन, ऐसी अनुज्ञा को प्रदान करने के पूर्व कोई अंतर्वर्ती आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।
2002 ए आई आर (केरल) 47
(4) जब कार्यवाही सदभाविक है चाहे भले ही भूलवश की गई है तो यह न्यास भंग के तुल्य नहीं है।
2008 (1) सी.सी.सी .397 (सुप्रीम कोर्ट)
(5) धारा 92 के अधीन एक वाद विशेष स्वभाव का वाद होता है जिसके द्वारा यह पूर्वधारित किया जाता है कि कोई लोक न्यास धार्मिक अथवा पुर्त है। इस प्रकार का वाद केवल इसी अभिकथन पर चल सकता है कि इस प्रकार के निवास में भंग हुआ है अथवा उसके प्रबंध के लिए न्यायालय का निर्देश आवश्यक है तथा वादी द्वारा इस धारा में उल्लेखित प्रति करो मैं से एक या अधिक की मांग की गई हो।
1952 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 843
(6) लोक न्यूसेंस के विरुद्ध वाद महाधिवक्ता या न्यायालय कि अनुमति से दो या दो से अधिक व्यक्ति, चाहे उन्हें कोई विशेष नुकसान ना भी हुआ हो ला सकेंगे।
1972 ए आई आर (राजस्थान) 103
(7) गांव के रास्ते पर से सनिर्माण को हटाने के लिए व्यादेश चाहने हेतु महाधिवक्ता की अनुमति की आवश्यकता तब तक नहीं होती है जब तक की उस रास्ते को सार्वजनिक मार्ग साबित नहीं कर दिया जाता।
1980 ए आई आर (मध्य प्रदेश) 73
(8) किसी लोक मार्ग पर बने निर्माण को हटाने के लिए वाद संस्थित करने हेतु वादी को उस मार्ग पर व्यक्तिक अधिकार जताया जाना अपेक्षित है।
1998 ए आई आर (राजस्थान) 108
(9) धारा 91 के अंतर्गत दो या अधिक मुसलमान इस घोषणा के लिए कि वह किसी सार्वजनिक मार्ग से जुलूस में समुंदर मैं डालने के लिए ताबूत ले जाने के लिए हकदार है, ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध जो कि इस में हस्तक्षेप करें तो वे अपने अधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए वाद संस्थित कर सकेंगे।
32 मद्रास 478
(10) न्यासधारियों द्वारा न्यास भंग किए जाने पर उसके निवारण के लिए जन साधारण द्वारा वाद लाया जा सकता है, पर इसके लिए महाधिवक्ता की अनुमति आवश्यक है।
1990 ए आई आर (इलाहाबाद) 202
(11) किसी भी वाद में पक्षकारों की हैसियत से वे सभी व्यक्ति जो कि उक्त वाद में उभयनिष्ठ हित रखते हैं: वाद को एक प्रतिनिधि वाद की प्रकृति प्रदान करते हैं।
1990 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 444
( 12) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 92 किसी भी वाद में प्रतिवादी गण को न्यायालय की आज्ञा प्रदान करने के पूर्व प्रस्तावित प्रतिवादी गण को नोटिस देने को अनुध्यात नहीं करती है।
1989 ए आई आर (इलाहाबाद) 194
No comments:
Post a Comment