In suit against Government two months notice or leave of court is necessary.(Section 80 CPC.)
सरकार के विरुद्ध वाद में दो महीने का नोटिस या अदालत की इजाजत आवश्यक है ।
(धारा 80 सी. पी. सी.)
(धारा 80 सी. पी. सी.)
सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किए जाने की प्रक्रिया में सूचना (Notice) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। संहिता की धारा 80 में ऐसी सूचना के बारे में प्रावधान किया गया है। जब भी सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किया जाना हो, इसके पूर्व उसे सूचना दिया जाना आवश्यक है। ऐसी सूचना वाद प्रस्तुत किए जाने के 2 माह पूर्व दी जाना आवश्यक है।
सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 80 के अधीन सूचना के उपबंध आज्ञापक है। जहां सूचना दिया जाना आवश्यक है, वहां सूचना दी ही जानी चाहिए। सूचना के अधिकार का त्यजन केवल उस पक्ष कार द्वारा किया जा सकता है जिसके लाभ के लिए यह उपबंधित किया गया है। सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 80 निम्न प्रकार से उपबंधित की गई है-
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धारा 80-सिविल प्रक्रिया संहिता- सूचना- (Notice)-
(1) उसके सिवाय जैसा उप धारा (2) मैं उपबंधित है, सरकार के (जिसके अंतर्गत जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत इसके बारे में यह तात्पर्यत है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत मैं किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध कोई वाद तब तक संस्थित नहीं किया जाएगा जब तक वाद हेतुक का, वादी के नाम, वर्णन और निवास स्थान का और जिस अनुतोष का वह दावा करता है उसका, कथन करने वाली लिखित सूचना-
( क) केंद्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में,( वहां के सिवाय जहां वह रेल से संबंधित है), उस सरकार के सचिव को; किया गया।
( ख) केंद्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, जहां वह रेल से संबंधित है, उस रेल के प्रधान प्रबंधक को;
( ख ख) जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, उस सरकार के मुख्य सचिव को या उस सरकार द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी अन्य अधिकारी को;
( ग) किसी अन्य राज्य सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, उस सरकार के सचिव को या जिले के कलेक्टर को,
परिदत्त किए जाने या उसके कार्यालय में छोड़े जाने के, और लोक अधिकारी की दशा में उसे परिदत्त किया जाने या उसके कार्यालय में छोड़े जाने के पश्चात, 2 मास का अवसान ना हो गया हो, और वाद पत्र में यह कथन अंतर्विष्ट होगा कि ऐसी सुचना ऐसे परिदत्त कर दी गई है या छोड़ दी गई है।
(2) सरकार के (जिसके अंतर्गत जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यत है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध, कोई अत्यावश्यक या तुरंत अनुतोष अभी प्राप्त करने के लिए कोई वाद, न्यायालय की इजाजत से, उप धारा (1) द्वारा यथा अपेक्षित किसी सूचना की तामील किए बिना संस्थित किया जा सकेगा; किंतु न्यायालय वाद में अनुतोष, चाहे अंतरिम या अन्यथा, यथास्थिति, सरकार या लोक अधिकारी को वाद में आवेदित अनुतोष की बाबत हेतुक दर्शित करने का उचित अवसर देने के पश्चात ही प्रदान करेगा, अन्यथा नहीं;
परंतु यदि न्यायालय का पक्षकारों को सुनने के पश्चात, यह समाधान हो जाता है कि वाद में कोई अत्यावश्यक या तुरंत अनुतोष प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है तो वह वह पत्र को वापस कर देगा कि उसे उपधारा (1) की अपेक्षाओं का पालन करने के पश्चात प्रस्तुत किया जाए।
(3) सरकार के विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत इसके बारे में यह तात्पर्यत है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध संस्थित किया गया कोई वाद इस कारण खरीज नहीं किया जाएगा की उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना में कोई त्रुटि या दोष है, यदि ऐसी सूचना में-
( क) वादी का नाम, वर्णन और निवास स्थान इस प्रकार दिया गया है जो सूचना की तमिल करने वाले व्यक्ति की शिनाख्त करने में समुचित प्राधिकारी या लोक अधिकारी को समर्थ करें और ऐसी सूचना उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट समुचित प्राधिकारी के कार्यालय में परिदत्त कर दी गई है या छोड़ दी गई है, तथा
( ख) वाद हेतुक और वादी द्वारा किया गया अनुतोष सारतः उपदर्शित किया गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ऐसी सूचना में-
(1) वाद कारण
(2) वादी का नाम, पता आदि, एवं
(3) वांछित अनुतोष का उल्लेख किया जाना आवश्यक है।
इस प्रकार प्रत्येक अवस्था में सरकार के विरुद्ध वाद लाने के पूर्व 2 माह का नोटिस दिया जाना आवश्यक है। वाद प्रस्तुत करने के पूर्व यदि ऐसी सूचना नहीं दी जाती है या ऐसी सूचना 2 माह से कम समय अवधि की दी जाती है तो वाद इस आधार पर निरस्त किया जाएगा। नोटिस में उन सभी बातों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो मामले को समझने के लिए पर्याप्त हो।
न्यायिक निर्णय -
(1) कोलकाता उच्च न्यायालय ने एक मामले में निर्धारित किया है कि जहां सुचना में वाद के समस्त सारभूत तत्वों का उल्लेख कर दिया गया हो, वहां उसे वेध, विधिमान्य एवं पर्याप्त नोटिस माना जाएगा, फिर चाहे वह वाद की हू बहू नकल ही क्यों ना हो।
1985 ए आई आर (कलकत्ता) 53
(2) राजस्थान उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन सूचना के उपबंध आज्ञापक है। जहां सूचना दिया जाना आवश्यक हो, वहां सूचना दी जानी चाहिए। सूचना के अधिकार का त्यजन केवल उस पक्षकार द्वारा किया जा सकता है जिसके लाभ के लिए यह उपबंधित किया गया है।
2001 ए आई आर (राजस्थान) 257
(3) एक मामले में संहिता की धारा 80 तथा संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 106 के अधीन दिए गए एक मिले जुले नोटिस को विधिमान्य ठहराया गया।
1981 ए आई आर (राजस्थान) 280
(4) जहां किसी भी वाद में विचारण के दौरान पीड़ित पक्षकार द्वारा जब किसी विशेष अनुतोष के संबंध में ततकाल एवं शीघ्रातिशीघ्र निवेदन किया जाता है, तो वहां संबंधित न्यायालय, उक्त वाद के दोनों पक्षकारों के तर्कों की सर्वप्रथम सुनवाई करती है और उक्त पिड़ित प्रकार के तर्क से संतुष्ट होने के पश्चात ही उस के पक्ष में कोई आदेश पारित करती है।
1992 ए आई आर (मध्य प्रदेश) 242
(5) माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया है कि नोटिस के अभाव का अभिवचन न तो वाद में दाखिल किए गए लिखित कथन या अतिरिक्त लिखित कथन में सरकार द्वारा नहीं उठाया गया इसलिए यह समझ आ गया कि दोष का त्यजन कर दिया गया था।
2007 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 113
(6) जहां बैंक के विरुद्ध स्थाई व्यादेश के लिए वाद प्रस्तुत किया गया और धारा 80 के अधीन नोटिस जारी करने की अपेक्षा से अभी मुक्त कर दिया गया था वहां विचारण न्यायालय नोटिस की कमी के कारण वाद पत्र को वापस नहीं कर सकता था।
2007 ए आई आर (एनओसी) 764( पंजाब हरियाणा)
(7) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 तथा रेलवे अधिनियम, 1890 की धारा 78 ( ख) के अधीन एक मिलाजुला नोटिस दिया गया जिसमें मामले से संबंधित समस्त तथ्यों का उल्लेख था, लेकिन बुकिंग कार्यालय वाले स्टेशन के स्थान पर मुख्य स्टेशन का नाम अंकित हो गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र इस कारण नोटिस को अविधिमान्य नहीं कहा जा सकता।
1981 ए आई आर (दिल्ली) 51
(8) एक मामले में घोषणा के लिए वादी द्वारा वाद की वह एक मृतक रेलवे कर्मचारी की विधिक तौर से विवाहिता पत्नी थी। भारत संघ को भी पक्षकार बनाया गया एवं अपने पति के कारण प्रतिवादी या किसी अन्य के पक्ष में रेलवे प्रशासन से बकाया के किसी अंश का संदाय करने से इसे निबंधित करते हुए स्थाई व्यादेश हेतु इसके विरुद्ध डिक्री का भी दावा किया गया था। भारत संघ को धारा 80 के अंतर्गत उचित नोटिस या धारा 80 (2)के अंतर्गत अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है।
2002 ए आई आर (कलकाता)1
(9) जहां एक प्रश्न गत कार्य नगर महापालिका के अधिवक्ता द्वारा किया गया, तो वह कार्य उसके द्वारा “कार्यालय संबंधी अपने सामर्थ्य की परिसीमा में किया गया एक कार्य था।” यही नहीं बल्कि उपयुक्त मौजूद स्थिति के परिणाम स्वरुप माननीय न्यायालय ने वाद में यह भी दृष्टिकोण जाहिर किया कि पूर्वोक्त नगर महापालिका के अधिवक्ता द्वारा किए गए कार्य के विरुद्ध उस पर तब तक कोई वाद कंपनी द्वारा नहीं संस्थित किया जा सकता है जब तक कि उक्त वादी कंपनी द्वारा पूर्वोक्त विपक्षी को अपेक्षित सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 की एक नोटिस ना भेज दी गई हो।
1989 ए आई आर (राजस्थान) 51
(10) एक वाद में निर्धारित किया गया है कि जब सरकार को नोटिस से अभीमुक्ति प्रदान करने के लिए आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया और उस को अस्वीकृत कर दिया गया तब न्यायालय के पास मात्र धारा 80 (1) के अनुपालन में वाद पत्र को वापस कर देने का ही विकल्प था।
2008 ए आई आर (उड़ीसा) 77
(11) सरकार के विरुद्ध एक वाद में सरकार को नोटिस की तामील से मात्र न्यायालय की इजाजत से भी अभिमुक्त किया जा सकता है जब अत्यावश्यक एवं शीघ्र अनुतोष को मंजूर किया जाना होता है किंतु ऐसा अनुतोष प्रदान करने के पूर्व एक अवसर कारण दर्शाने के लिए सरकार को प्रदान किया जाना चाहिए।
2007 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 113
(12) एक मामले में मौलिक रुप से प्रस्तुत लिखित कथन के संदर्भ में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि धारा 80 के अधीन सम्यक नोटिस निर्गत किया जाना आवश्यक है क्योंकि लिखित कथन में असंगत अभिवाक को महत्व नहीं दिया जाएगा।
2001 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 544
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