Strike out or add parties in suits.Order 1 rule 10 C.P.C.-आदेश 1 नियम 10 सी. पी. सी. - CIVIL LAW

Sunday, June 17, 2018

Strike out or add parties in suits.Order 1 rule 10 C.P.C.-आदेश 1 नियम 10 सी. पी. सी.



वादपत्रो में पक्षकारो का जोड़ा व हटाया जाना।
आदेश 1 नियम 10 सी. पी. सी.-

 Strike out or add parties in suits.
Order 1 rule 10 C.P.C.-

आदेश 1 नियम 10 सीपीसी -

गलत वादी के नाम से वाद--
(1) जहां कोई वाद वादी के रूप में गलत व्यक्ति के नाम से प्रस्तुत किया है,या जहाँ यह संदेह पूर्ण है कि क्या वह सही वादी के नाम से संस्थित किया गया है वहां यदि वाद के किसी प्रक्रम में न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि वाद सदभावी भूल से संस्थित किया गया है और विवाद में के वास्तविक विषय के अवधारण के लिये ऐसा करना आवश्यक है तो,वह ऐसे निबंधनों पर, जो न्यायगत समझे, वाद के किसी प्रक्रम में किसी अन्य व्यक्ति को वादी के रूप में प्रतिस्थापित किये जाने या जोड़े जाने का आदेश कर सकेगा।

(2)न्यायालय पक्षकारो का नाम काट सकेगा या जोड़ सकेगा---न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में या तो दोनों पक्षकारो में से किसी के आवेदन पर या उसके बिना और ऐसे निबंधनों पर जो न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो, यह आदेश दे सकेगा कि वादी के रूप में या प्रतिवादी के रूप में अनुचित रूप तौर पर संयोजित किसी भी पक्षकार का नाम काट दिया जाय और किसी व्यक्ति का नाम जिसे वादी या प्रतिवादी के रूप में ऐसे संयोजित किया जाना चाहिये था या न्यायालय के सामने जिसकी उपस्थिति वाद में अन्तवर्लित सभी प्रशनो का प्रभावी तौर पर और पूरी तरह न्यायनिर्णय और निपटारा करने के लिये न्यायालय को समर्थ बनाने की दृष्टि  से आवश्यक हो, जोड़ दिये जाय।




(3) कोई भी व्यक्ति वाद मित्र के बिना वाद लाने वाले वादी के रूप में अथवा उस वादी के जो किसी निर्योग्यता के अधीन है,वाद मित्र के रूप में उसकी सहमति के बिना नहीं जोड़ा जायेगा।

(4) जहां प्रतिवादी जोड़ा जाय वहाँ वाद पत्र का संशोधित किया जाना--जहां कोई प्रतिवादी जोड़ा जाता है वहां जब तक न्यायालय अन्यथा निदिष्ट न करे वाद पत्र का इस प्रकार संशोधन किया जायेगा,जैसा आवश्यक हो,और समन की और वादपत्र की संशोधित प्रतियो की तामील नये प्रतिवादी पर,और यदि ठीक समझे तो मूल प्रतिवादी पर की जायेगी।

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( 5) इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1877 (1877 का 15) की धारा 22 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, प्रतिवादी के रूप में जोड़े गए किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही समन की तमिल पर ही प्रारंभ की गई समझी जाएगी।
इस नियम का सारांश यह है कि वादी द्वारा वाद पेश करने के बाद ज्ञात होता है कि उसने भूल या गलती से गलत व्यक्तियों के नाम समलित कर दिए है जो अनुतोष पाने के अधिकारी नहीं है या किसी वादी को समलित करना आवश्यक है उसके बिना पूर्ण अनुतोष प्राप्त नहीं किया जा सकता है तो ऐसी सदभाव पूर्ण भूल को सुधारने हेतु ऐसे वादी को समलित किये जाने का आदेश न्यायालय दे सकेगा।

         ठीक उसी प्रकार कोई व्यक्ति उस विवाद के वास्तविक विषय के अवधारण के लिये आवश्यक है तो पक्षकारो के आवेदन पर वादी या प्रतिवादी जोड़े जाने का आदेश न्यायालय दे सकेगा।
जहां तक न्यायालय की शक्तियों का प्रश्न है न्यायालय को बृहद विवेकाधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति को पक्षकार बना सकता है यदि न्यायालय यह समझता है कि इस प्रकार के व्यक्ति की पक्षकार के रूप में उपस्थिति न्याय हित में आवश्यक है। 1 नियम 10 (2)की  प्रयोज्यता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि पक्ष कार की ओर से कोई आवेदन होना चाहिए। न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी व्यक्ति को अपने आप ही पक्षकार बना सकता है यदि वह पक्षकारों के अधिकारों के प्रभावी न्याय निर्णयन के लिए ऐसा करना उचित समझें।




महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय --

(1) यदि पक्षकारों के संयोजन हेतु प्रार्थना पत्र विलम्ब से दिया गया है तो ऐसे विलंब को क्षमा किया जा सकता है।
1989 ए आई आर (पटना) 34

(2)न्यायालय पक्षकारो के आवेदन के बिना भी स्वप्रेणा से किसी पक्षकार को वाद में जोड़े जाने का आदेश कर सकता है।विलम्ब के आधार पर आवेदन अस्वीकार नहीं करना चाहिये यदि प्राथी उचित व आवश्यक पक्षकार हो तथा हितबद्ध हो।अधिकारों का वादावासान (non-whites) नही किया जा सकता है।
2012(2)DNJ (Raj.)810

(3) मात्र इस आशंका पर कि वादी एवं प्रतिवादी आपस में वाद का निर्णय करवा लेंगे, किसी व्यक्ति को प्रतिवादी के रूप में संयोजित नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह सोचता सुस्थापित विधि है कि न्यायालय द्वारा पारित डिक्री अथवा आदेश उन व्यक्तियों के हितों को नहीं प्रभावित करेगी जो वाद में पक्षकार नहीं है।
1993 ए आई आर (इलाहाबाद) 8

(4)संविन्दा की  विनिर्दिष्ट पालना का वाद--नोटिस मिलने के बाद सम्पति विक्रय की --पश्चात्वर्ती विक्रय का तथ्य जबाब दावे से जानकारी में आया--निर्णीत,विचारण न्यायालय आवेदन ख़ारिज करने में न्याय संगत नहीं था -आवेदन स्वीकार।
2012(1)DNJ (Raj.)371

( 5)जहां तक न्यायालय की शक्तियों का प्रश्न है न्यायालय को बृहद विवेकाधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति को पक्षकार बना सकता है यदि न्यायालय यह समझता है कि इस प्रकार के व्यक्ति की पक्षकार के रूप में उपस्थिति न्याय हित में आवश्यक है। 1 नियम 10 (2)की  प्रयोज्यता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि पक्ष कार की ओर से कोई आवेदन होना चाहिए। न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी व्यक्ति को अपने आप ही पक्षकार बना सकता है यदि वह पक्षकारों के अधिकारों के प्रभावी न्याय निर्णयन के लिए ऐसा करना उचित समझें।
1993 (1) सिविल लॉ जनरल 192 (उड़ीसा)




( 6) न्यायालय ऐसे व्यक्तियों के नाम को वाद पत्र में बढ़ाए जाने की अनुमति दे सकता है चीन की उपस्थिति न्यायालय के समक्ष आवश्यक है। स्वतः की घोषणा के वाद में अन्तरिति ना तो आवश्यक उस पक्षकारहै न ही उचित पक्षकार है।

(7) जहां भागीदारी के संबंध में कोई वाद प्रस्तुत किया गया था किंतु पक्षकार के रूप में कोई कार्रवाई नहीं निष्पादित की गई थी वहां न्यायालय स्वयंमेव कोई कार्यवाही द्वितीय अपील में आदेश 1 नियम 10 ( 2) के अंतर्गत नहीं कर सकता है। वाघ विचारण न्यायालय को प्रेषित किया गया ताकि सभी पारिवारिक सदस्यों को सुना जा सके।
1999 ए आई आर (मद्रास) 71

(8) जहां अभिवचन हेतु पत्र किया गया था आवेदन प्रस्तुत किया गया था, आवेदक तृतीय पक्षकार के रूप में था जिसका वाद के संदर्भ में कोई प्रत्यक्ष लाभ न था वहां यह  अभिनिर्धारित किया गया कि वह आवश्यक पक्षकार न था।
1999 ए आई आर (मद्रास) 105

(9) विनिर्दिष्ट अनुपालन के प्रकरण में वादी ने एक प्रतिवादी को संयोजित करने का प्रार्थना पत्र दिया। वादी का तर्क था कि वह व्यक्ति वाद की विषय वस्तु से प्रत्यक्ष रूप से हितबद्ध है और उसका प्रतिवादी के रूप में संयोजन प्रकरण के पूर्ण रूप में एवं प्रभावी रीति से  निर्णयन के लिए आवश्यक है। न्यायालय यह धारण किया कि ऐसे व्यक्ति को प्रतिवादी बनाने हेतु वादी को अनुमति दी जा सकती है।
1990 ए आई आर (दिल्ली) 13

(10) यदि कोई व्यक्ति किसी भूमि को तीसरे व्यक्ति को हस्तांतरण कर देता है तो वे सभी व्यक्ति जो इस भूमि से हितबंद है वाद के पक्षकार माने जाएंगे।
1993 ए आई आर (इलाहाबाद) 159

(11) जहां एक क्रेता ने विनिर्दिष्ट अनुपालन के लिए वाद संस्थित किया एवम उसी संपत्ति का दूसरा क्रेता मुकदमेबाजी द्वारा प्रभावित होता है तो वह वाद का उचित पक्षकार है और मामले के पूर्ण निर्णयन के लिए उसे पक्षकार बनाया जाना आवश्यक है।
1994 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 50




(12) अन्तरिति ने अपीलीय स्तर पर पक्षकारों के संयोजन हेतु प्रार्थना पत्र दिया। 5 वर्ष के विलंब होने का कोई कारण नहीं दिया गया। न्यायालय ने धारण किया कि पक्षकारों के संयोजन हेतु यह प्रार्थना पत्र प्रकरण के अंतिम समय में दिया गया। पक्षकारों को संयोजित नहीं किया जा सकता है।
1989 ए आई आर (कर्नाटक) 278

(13) यदि वादी अपने अधिकार का परित्याग कर देता है अथवा वाद को वापस ले लेता है तथा न्यायालय का यह विचार है कि अन्य प्रतिवादियों के विरुद्ध सारतः प्रश्न का निर्धारण करना आवश्यक है तो वह प्रतिवादियों को वादियों के रूप में पक्षांतरण करने की अनुज्ञा दे सकता है।
1989 ए आई आर (पटना) 2

(14) वाद पत्र को इस आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता है कि यह एक अतिकर्मी के विरुद्ध संस्थित किया गया है। न्यायालय यह आदेश दे सकती है कि अन्य आवश्यक लोगों को भी पक्षकार बनाया जाए। वादी को यह हक प्राप्त है कि वह सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 10 के अंतर्गत आवश्यक व्यक्तियों को पक्षकार बनाने के लिए आवेदन करें। यदि न्यायालय के निर्देश के बावजूद वादी, आवश्यक व्यक्ति को पक्षकार बनाने में लोप करता है तो वाद पत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
1994 ए आई आर (इलाहाबाद) 1

(15) जहां प्रस्तुत बेदखली संबंधी वाद में अभिवचन संबंधी आवेदन यह साबित नहीं कर पा रहा था कि आवेदनकर्ता किराएदार है या उप किराएदार वहां उन्हें अपरिचित मानते हुए पक्षकार के रूप में नहीं माना जा सकता है।
1999 ए आई आर (राजस्थान) 41

(16) एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभी निर्धारित किया गया है कि रिट याचिका द्वारा केंद्रीय सरकार के चयन नीति को चुनौती दी गई थी वहां उन अभ्यर्थियों को जिन्होंने इंडिपेंडेंनट पावर प्रोजेक्ट (आई. पी. पी ) के आवंटन के बारे में आवेदन किया था एवं जिन के पक्ष में आवंटन किया गया था, आवश्यक पक्षकार माना गया एवं यह  निर्धारित किया गया कि उन्हें प्रतिकूल रूप में प्रभावित करने वाला कोई आदेश नहीं पारित किया जा सकता और बिना उनको सुने के याची के पक्ष में कोई अनुतोष नहीं दिया जा सकता।
1999 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 526




(17) उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि जहां यह अभिवचन किया जाता है कि याचिकाकर्तागण को पक्षकार बनाया जाना चाहिए क्योंकि उसके पिता द्वारा हस्ताक्षरित त्यजन के विलेख की  वास्तविकता के प्रश्न का अवधारण उनकी गैर मौजूदगी में नहीं किया जा सकता है, वहां ऐसे अभिवचन को मान्य नहीं किया गया कि वाद विशिष्ट कार्य के लिए होता है और न कि स्वत्व के लिए।
1996 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 2755

(18) एक विभाजन के वाद में आवश्यक पक्षकार के संयोजन किए जाने के प्रश्न को उस समय उठाया जा सकता है जब यह मामले के मूल तक जाता हो।
1997 ए आई आर (मद्रास) 227


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