Amendment of pleadings-Order 6 rule 17 CPC-अभिवचन का संशोधन - CIVIL LAW

Saturday, June 16, 2018

Amendment of pleadings-Order 6 rule 17 CPC-अभिवचन का संशोधन


Amendment of pleadings-Order 6 rule 17 CPC-
अभिवचन का संशोधन ---आदेश 6 नियम 17 सी पी सी-


         न्यायालय में वाद या जबाब दावा पेश होने के बाद उसमें संशोधन किया जा सकता है तथा कैसे-इसका प्रावधान आदेश 6 नियम 17 सी पी सी में किया गया है।

आदेश 6 नियम 17 सी पी सी-

न्यायालय दोनों में से किसी पक्षकार को कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में अनुज्ञा दे सकेगा कि वह अपने अभिवचनों को ऐसी रीति से और ऐसे निबंधनों  पर, जो न्याय संगत हो अपने अभिवचनों के परिवर्तित या संशोधित करने के लिये अनुज्ञात कर सकेगा और वे सभी संशोधन किये जायेंगे जो दोनों पक्षकारों
के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न के अवधारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो।


परंतु विचारण प्रारंभ होने के उपरांत  संशोधन के लिए पार्थना की अनुमति तब तक नहीं दी जायेगी जब तक कि किसी आवेदन को जब  तक कि न्यायालय इस निर्णय पर न पहुंचे कि सम्यक तत्परता के उपरांत भी पक्ष विचारण आरम्भ होने के पूर्व मामला नहीं उठाया पाया।




       

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अभिवचन का संशोधन न्यायालय द्वारा निम्न आधारों की पूर्ति हेतु दिया जा सकेगा --
अ--  न्याय हित में आवश्यक है:या
 ब-- पक्षकारो के मध्य विवाद के सही विनिश्चय के लिए अदालत को सहायता प्राप्त होगी।
स--वाद की बाहुलता को रोकने के लिए आवश्यक हो।
      उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिये न्यायालय पक्षकारो के आवेदन पर आदेश प्रदान कर
सकता है।इस प्रकार का आदेश न्यायालय का विवेकाधीन है जो हर मामले की परिस्थतियो पर निर्भर है।





 न्यायालय वाद के संशोधन की बजाय जबाब दावे के संशोधन करने की अनुमति देने में ज्यादा उदार होते है।
संशोधन कब अनुज्ञात किया जा सकता है तथा संशोधन कब अनुज्ञात नहीं किया जा सकता है इसका विस्तृत विवेचन महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय सहित किया जा रहा है - -

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय - -

(1)विचारण न्यायालय द्वारा आवेदन गुणा गुण पर ख़ारिज किया --भारी अवेधानिकता एवम अनियमता से आदेश ग्रसित होने से आदेश अपास्त किया।
 1997 (2)DNJ (Raj.) 446

(2)अभिवचन में संशोधन की अनुमति देना न्यायालय का विवेकाधीन है।
 1997 (1)DNJ(Raj.)315

(3) अपीलीय न्यायालय में बाद की घटनाओं के आधार पर प्रस्तुत आवेदन खारिज किया व निर्णय तथा डिक्री यथावत रखा--अभिनिर्धारित --आवेदन ख़ारिज कर न्यायालय ने अनियमता की है।
 1998(1)DNJ (Raj.)350

(4)जबाब दावा में संशोधन--वाद के निर्णय के लिए संशोधन आवश्यक हो व वाद की प्रकृति में बदलाव नहीं हो तो आवेदन स्वीकार होना चाहिए।
 1996(1) DNJ (Raj.)81




(5) जबाब दावा में संशोधन-- वाद पेश करने के 34 वर्ष बाद प्राथना पत्र पेश किया।अपीलीय स्तर पर यह सदभावी व उचित एवम न्याय संगत होना चाहिये।निर्णीत--आवेदन ख़ारिज योग्य है।
  2012 (3) DNJ (Raj.)1669

(6) वाद पेश होने के 17 वर्ष बाद जबाब दावा में संशोधन के लिये आवेदन सदभावी नहीं होने से व वाद की कार्यवाहियों को लम्बा करने की नीयत से प्रस्तुत होने से खारिज करने का आदेश सही है।
 2010 WLC (Raj.)676

(7)वाद पत्र में आंशिक संशोधन स्वीकार।निर्णीत --संशोधन पूर्ण रूप से स्वीकार करना चाहिए था आवेदन स्वीकार कर वाद पत्र में संशोधन स्वीकार किया।
 2013(2)DNJ (Raj.)889

(8)अभिवचन में संशोधन--
संशोधन को स्वीकार करने की विस्तृत शक्तियां है और वो प्रक्रम के किसी स्तर पर प्रयोग की जा सकती है बशर्ते न्यायहित व वादों की बाहुलता को रोकने के लिये आवश्यक हो।
 2013(1)DNJ (SC) 75.
AIR 1986 SiKKim 6

(9) यदि संशोधन से वाद की प्रकृति में बदलाव होता है तो न्यायालय को उक्त संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
 1991 (2)RLW 387.

(10) यदि संशोधन से वाद की प्रकृति में बदलाव नहीं होता है तो न्यायालय को उक्त संशोधन की अनुमति  दी जा सकती है।
   AIR 1994 NOC (MP)

(11) निर्णय सुनाने के पहले तक न्यायालय संशोधन प्रार्थना पत्र पर विचार कर सकता है।
1993 ए आई आर (मध्य प्रदेश) 248




(12) यदि वाद पत्र में संशोधन, विनिर्दिष्ट अनुपालन के बदले में क्षतिपूर्ति के अनुतोष से संबंधित है, जहां की वादी ने अपने विनिर्दिष्ट अनुपालन के अनुतोष का परित्याग नहीं किया है तो न्यायालय कार्रवाई के सभी स्तर पर संशोधन अनुज्ञात कर सकती है।
1992 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1604

(13) यह एक सुस्थापित विधि है कि यदि प्रतिवादी अपने लिखित कथन में संशोधन करना चाहता है और उस संशोधन के द्वारा वह अपने द्वारा की गई स्वीकृति को बदलना चाहता है जिससे वादी का हित प्रभावित होता है तो ऐसे संशोधन को अनुज्ञात नहीं किया जा सकता है।
1993 ए आई आर (दिल्ली) 1

(14) सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 17 के अंतर्गत वाद पत्र में संशोधन हेतु एक आवेदन प्रस्तुत किया गया, उसमें वहां संशोधन हेतु अभिलेख में साक्ष्य को प्रस्तुत किया जाने के उद्देश्य से पक्षकारों के अभिवचन द्वारा समाधान किया गया जहां पर अतिरिक्त वाद विषय का निर्धारण करने हेतु परिस्थितिया उसे प्रमाणित करती है तथा इस प्रकार के अभिवचन के आधार पर एक स्वतंत्र उपपत्ति की जा सकती है तो वहां पर उस संशोधन आवेदन पत्र को स्वीकृति प्रदान कर दिया जाता है।
1995 ए आई आर (कर्नाटक) 11

(15) संशोधनो को उदारवादी तौर पर अनुज्ञात किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक बार और सदैव के लिए पक्षकारों के बीच सभी मुकदमो को समाप्त करने की प्रवृत्ति रखेगा। ऐसे एक संशोधन को उस समय अनुज्ञात करना विशेषकर उस समय न्याय हित में होगा जब पक्षकारों में से किसी आश्चर्य भाव से नहीं ग्रहण किया जाता।
2007 ए आई आर (पटना) 54


(16) यदि सत्यापन एवं शपथ पत्रों में कोई दोष पाया जाता है तो उन्हें दूर करने के लिए पक्षकार को अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
2008 ए आई आर (दिल्ली) 91 (डी. बी.)

(17) जहां व्यादेश के वाद में वादी को विनिर्दिष्ट अनुपालन एवं कब्जे के वाद में परिवर्तन करने हेतु वाद पत्र में संशोधन करने के लिए प्रार्थना पत्र दिया वहां न्यायालय ने यह आदेश दिया कि चूंकि ऐसे वाद पत्र में संशोधन करने से प्रतिवादी का हित प्रभावित होगा अतएव संशोधन की आज्ञा नहीं दी जा सकती है।
1993 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 47




(18) जहां न्यायालय में कार्यवाही के कारण को वास्तविक वाद हेतुक मैं परिवर्तन करने के लिए संशोधन हेतु आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया हो, तो वहां पर इस प्रकार का संशोधन को स्वीकृत नहीं किया जा सकता है।
1992 ए आई आर (मद्रास) 25

(19) जहां किसी वाद में क्षतिपूर्ति के अनुतोष के लिए वाद पत्र में संशोधन करने का प्रश्न उठता है, तो उस वाद के किसी भी चरण में संशोधन हेतु संबंधित न्यायालय में आवेदन पत्र प्रस्तुत किया जा सकता है।
1992 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1604

(20) जहां की पीड़ित पक्षकार ने प्रथम अपीलीय न्यायालय में संशोधन हेतु आवेदन पत्र प्रस्तुत किया, तो वहां न्यायालय ने यह निर्णित किया कि इस आवेदन पत्र को अस्वीकृत करने का कोई आधार मौजूद नहीं है।
1991 ए आई आर (पंजाब और हरियाणा)240

(21) यदि लिखित कथन में संशोधन करने से वादी के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तो ऐसे संशोधन को अनुज्ञात नहीं किया जा सकता है।
1993 ए आई आर (गुवाहाटी) 178

(22) जहां न्यायालय ने वाद पत्र को उचित न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु वापस कर दिया हो तथा उसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की जा चुकी हो, वहां उस वाद पत्र में संशोधन अनुज्ञात नहीं किया जा सकता है।
1992 ए आई आर (इलाहाबाद) 25

(23) जहां वादी के कब्जे के पक्ष में निचली दोनों न्यायालय के निष्कर्षों को अनुचित, अन्याय पूर्ण एवं अभिवचन के प्रतिकूल पाया गया, वहां ऐसे निष्कर्ष के विरुद्ध अपील को स्वीकृत कर दिया गया तथा प्रश्नगत आदेश को अपास्त कर दिया गया।
1996 (2) WLC (Raj) 70


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