Misjoinder And Nonjoinder Of Parties -Order 1Rule 9 CPC
संहिता के आदेश 1 नियम 9 के अंतर्गत पक्षकारों का को कुसंयोजन या असंयोजन होने पर उसके क्या परिणाम होंगे इस बारे में उपबंधित किया गया है। जहां किसी ऐसे व्यक्ति को, जो किसी वाद का आवश्यक पक्षकार है, वाद में एक पक्षकार के रुप में सम्मिलित नहीं किया गया है तो यह एक असंयोजन का मामला है। जो किसी वाद का अवश्यक पक्षकार नहीं है, वाद में एक पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया गया है तो यह एक कुसंयोजन का मामला है।
केवल पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के आधार पर कोई वाद निरस्त नहीं कर दिया जाता है। न्यायालय किसी पश्चातवर्ती प्रक्रम पर आवश्यक पक्षकारों को सम्मिलित किए जाने की अनुमति दे सकता है।
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यदि कोई डिक्री बिना अनुपस्थित पक्षकारों के प्रभावी नहीं हो सकती तो वाद निरस्त किए जाने योग्य होता है। यदि किसी व्यक्ति का एक पक्षकार के रूप में संयोजन केवल एक सुविधा का विषय हो, अर्थात औपचारिक हो तो अनुपस्थित पक्ष कार को बढ़ाया जा सकेगा या वाद का निवारण बिना उसके सम्मिलित किए ही किया जा सकेगा। लेकिन जहां किसी आवश्यक प्रकार के असंयोजन का मामला हो, वहां यह नियम लागू नहीं होगा। यह व्यवस्था संहिता में 1976 के अधिनियम संख्या 104 द्वारा नवीन रूप से सम्मिलित की गई है।
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सिविल प्रक्रिया संहिता में आदेश 1 नियम 9 निम्न प्रकार से उपबंधित किया गया है--
आदेश 1 नियम 9 सीपीसी- कुसंयोजन और असंयोजन (Misjoinder And Nonjoinder )- कोई भी वाद पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के कारण विफल नहीं होगा और न्यायालय हर वाद में वादग्रस्त विषय पर निपटारा वहां तक कर सकेगा जहां तक उन पक्षकारों के, जो उसके वस्तुतः समक्ष है, अधिकारों और हितों का संबंध है;
( परंतु इस नियम की कोई बात किसी आवश्यक पक्षकार के असंयोजनको लागू नहीं होगी।)
वादियों का कुसंयोजन तब होता है जबकि किसी वाद में दो या अधिक वादी हो, लेकिन वादी संयुक्ततः सब वाद कारण मैं हितबद न हो।
प्रतिवादियों का कूसंयोजन वहां होता है जहां की किसी वाद में दो या अधिक प्रतिवादी हो, लेकिन विभिन्न वाद कारण विभिन्न प्रतिवादी के विरुद्ध अलग-अलग सम्मिलित किए गए हो।
पक्षकारों या वाद कारणों के ऐसे असयोजन के या कुसंयोजन या वाद में की किन्ही कार्यवाहियों में ऐसी गलती, त्रुटि या अनियमितता के कारण कोई आज्ञप्ति अपील में ना तो उल्टी जाएगी और ना उसमें ठोस फेरफार किया जाएगा, जिससे कि मामले के गुण दोष या न्यायालय के क्षेत्राधिकार प्रभावित नहीं हुए हो। (धारा 99)
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संहिता में यह महत्वपूर्ण उपबंद है। वाद पत्र तैयार करते समय इस उपबंध का समुचित अध्यन होना आवश्यक है। विभिन्न न्यायालयों द्वारा इस उपबँध के संबंध में जो न्यायिक निर्णय दिए गए हैं उसके अध्ययन से इस उपबंध को समझने में आसानी रहेगी।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय--
(1) आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि यदि पक्षकारों के असंयोजन से न्याय पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है तो अपीलीय न्यायालय द्वारा डिक्री को अपास्त नहीं किया जाएगा।
1981 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 250
(2) एक मामले में माननीय न्यायालय ने इस तर्क का समर्थन किया कि आदेश 1 नियम 9 का नियोगपत्र यह होता है की किसी भी वाद को संबंधित पक्षकारों के कुसंयोजन एवं असंयोजन
के कारण निश्चित तौर पर पराजित नहीं किया जाएगा।
1989 ए आई आर (जम्मू एंड कश्मीर) 30
( 3) एक मामले में बंधक के पुरोबन्ध के वाद में बंधगी की पुत्रियों को जो की आवश्यक पक्षकार थी, को संयोजित नहीं किया गया। असंयोजन के लिए प्रारंभ में ही आपत्ती की गई। यह धारण किया गया कि असंयोजन के आधार पर वाद पोषणीय नहीं था।
1993 ए आई आर (मध्य प्रदेश) 21
(4) एक मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा वादी एवं प्रतिवादी के बीच ऐसे विवाद में, सरकार के विरुद्ध कोई अनुतोष नहीं चाहा गया हो, सरकार को आवश्यक पक्षकार नहीं माना गया है।
2000 ए आई आर (मद्रास) 60
(5) एक मामले में मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक पक्षकारों के संबंध में यह कहा गया है कि किसी फ्लैट के विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के बाद में जहां स्वामी के विरुद्ध कोई अनुतोष नहीं चाहा गया हो तथा करार केवल वादी एवं भवन निर्माता के बीच निष्पादित हुआ हो, वहां संपत्ति का स्वामी और उसकी मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी वाद मैं आवश्यक पक्षकार नहीं है।
2000 ए आई आर (मुंबई) 18
(6) किसी पट्टा के निरस्तीकरण के मामले में उपपट्टेदार को पक्षकार के रूप में सम्मिलित किया जाना आवश्यक नहीं है। क्योंकि मुख्य पट्टे के निरस्तीकरण के साथ-साथ उपपट्टा अपने आप निरस्त हो जाता है।
1978 ए आई आर (कोलकाता) 189
(7) उड़ीसा उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभीनिर्धारित किया है कि स्थगन आदेश केवल आवश्यक पक्षकार के हितों को सुरक्षित करने के लिए दिया जाता है वह व्यक्ति स्थगनआदेश प्राप्त करने के अधिकार नहीं है जो कि वाद के अवश्यक़ पक्षकार नहीं है।
1993 ए आई आर (उड़ीसा) 153
(8) एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि प्रतिवादी का यह अभी वाक था कि सहस्वामियों को आवश्यक पक्षकार के रुप में संयोजित ना करने के कारण वाद नीरस्त होने योग्य है परंतु लिखित कथन में ऐसा कोई प्रकथन नहीं किया गया था कि दूसरे सहस्वामी कौन है। यह धारण किया गया कि ऐसे और अस्पष्ट अभिवाक पर वाद पक्षकारों के कुसंयोजन के आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता है।
1993 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1587
(9) पक्षकारों के कुसयोजन के संबंध में आपत्ती विचारण स्तर पर ही उठाई जानी चाहिए इसे अपील स्तर पर नहीं उठाया जाना चाहिए।
1994 ए आई आर (आंध्र प्रदेश)72
( 10) माननीय कलकता उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि पुनरीक्षण में प्रतिवादी ने स्वयंमेव यह दावा किया है कि वह वादी के अधीन ग्रह परिवार संबंधी वाद में एक किरायेदार होने की हैसियत रखती थी वहां ऐसी परिस्थितियों में यह तर्क करने के लिए प्रतिवादी के लिए खुला था कि वह वादी के अधीन एकमात्र किराएदार थी लेकिन वह मृतक के पुत्र व पुत्रियों के साथ एक संयुक्त किराएदार की स्थिति में थी। अतः पक्षकारों द्वारा उसे असंयोजन किए जाने के कारण वाद पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता था।
1995 ए आई आर (कलकता) 123
(11) माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में अभिनिर्धारित किया है कि मंडी समिति से भूखंड के प्राप्ति करता की ओर से कब्जे की मांग की जा रही थी और इस वाद में मंडी समिति या सरकार को शामिल भी नहीं किया गया था, वहां यदि सरकार या मंडी समिति के विरुद्ध मारवाड़ दावा नहीं किया गया, तो इससे उनके वाद में सम्मिलित करने के लोपन से आदेश 1 नियम 3 द्वारा निःसार हो जाना नहीं माना गया।
1997 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1879
(12) विवाह विच्छेद हेतु वाद जार कर्म के अभी कथन के आधार पर दाखिल किया गया और जारकर्मी को गुवाहाटी उच्च न्यायालय के नियम 8 के अनुसार अभियोजित किया गया वहां इस वाद को प्रतिवादी को एक प्रकार के रूप में जार कर्मी के कुसंयोजन के कारण गलत नहीं माना गया।
2008 ए आई आर (गुवाहाटी) 74
(13) एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह अभीनिर्धारित किया गया है कि जहां कोई व्यक्ति किसी अस्पताल में चिकित्सक विशेष को उसकी व्यक्तितक हैसियत में रोगी को बताता है, वहां ऐसे चिकित्सक की लापरवाही से कारित क्षति के लिए संस्थित क्षतिपूर्ति के बाद में उस अस्पताल के सह चिकित्सको तथा चिकित्सा इकाई के प्रभारी को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक नहीं है।
1996 ए आई आर (दिल्ली) 261
( 14) पटना उच्च न्यायालय ने एक मामले में निर्धारित किया है कि समस्त वाद पदों के न्यायनिर्णयन हेतु न्यायालय किसी प्रकार को प्रतिवादी के रुप में सम्मिलित कर सकता है, चाहे वादी ऐसा नहीं चाहता हो।
1980 ए आई आर (पटना) 187
(15) माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभीनिर्धारित किया है कि एक डिक्री जो तथ्य को दबाकर या दुरभिसंधि द्वारा अभी प्राप्त की गई है, उनके विरुद्ध निष्पादन योग्य नहीं होगी जो वाद में पक्षकार नहीं थे।
2008 (1) सी.सी.सी.323( सुप्रीम कोर्ट)
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