Stay of suit --Section 10 CPC.
वाद का रोक दिया जाना- धारा 10 सीपीसी
धारा 10 सिविल प्रक्रिया संहिता-- वाद का रोक दिया जाना-- कोई न्यायालय ऐसे किसी भी वाद के विचरण में जिसमें विवाद्य विषय उसी के अधीन मुकदमा करने वाले किन्हीं पक्षकारों के बीच के या
ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्वतन संस्थित वाद में भी प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद है, आगे कार्यवाही नहीं करेगा जहां ऐसा वाद उसी न्यायालय में या भारत मैं के किसी अन्य ऐसे न्यायालय में, जो दावा किया गया अनुतोष की अधिकारिता रखता है या भारत की सीमाओं के परे वाले किसी ऐसे न्यायालय में जो केंद्रीय सरकार द्वारा स्थापित किया गया है या चालू रखा गया है और, वैसी ही अधिकारिता रखता है, या उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है।
ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्वतन संस्थित वाद में भी प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद है, आगे कार्यवाही नहीं करेगा जहां ऐसा वाद उसी न्यायालय में या भारत मैं के किसी अन्य ऐसे न्यायालय में, जो दावा किया गया अनुतोष की अधिकारिता रखता है या भारत की सीमाओं के परे वाले किसी ऐसे न्यायालय में जो केंद्रीय सरकार द्वारा स्थापित किया गया है या चालू रखा गया है और, वैसी ही अधिकारिता रखता है, या उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है।
स्पष्टीकरण -- विदेशी न्यायालय मैं किसी वाद का लंबित होना उसी वाद हेतुक पर आधारित किसी वाद का विचरण करने से भारत में के न्यायालयों को प्रवारित नहीं करता।
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सहिंता में यह धारा महत्वपूर्ण है।वाद कों रोकना विचाराधीन न्याय (RES SUBJUDICE) के सिद्धान्त पर आधारित है। रेस सब जुडिस लेटिन टर्म से लिया गया है। वाद की बाहुलता को रोकना अति आवश्यक है। तथा इसी के कारण सहिंता में धारा 10 को उपबंधित किया गया है जिसका उदेश्य क़ानूनी बाध्यता से वादों की बहुलता (Multiplicity of suits)को रोकना है।
धारा10 सी पी सी--वाद का रोक दियाजाना--
किसी पक्षकारो के मध्य उसी विषयवस्तु ,अधिकार का वाद उसी अदालत या भारत में किसी न्यायालय जिसे अदालत वाद सुनने की अधिकारिता रखती हो चल रहा हो तो उसी विषय वस्तु या अधिकार बाबत पुनः किया गया वाद को न्यायालय रोक सकेगा और स्थगन कर सकेगा। विदेशी न्यायालय में किसी वाद का लंबित होना उसी वाद हेतुक पर आधारित किसी वाद का विचारण करने से भारत में विचारण से वंचित नहीं करता है।
इस धारा का उदेश्य सामान क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय को एक ही समय में एक ही वाद कारण व उसी विषय वस्तु और उसी अनुतोष को प्राप्त करने के लिए एक से अधिक वादों को ग्रहण करने या विचारण तथा निर्णीत करने से रोकना है।
यह धारा कब लागु होगी--
1.दोनों वादों में वादग्रस्त विषय वस्तु एक ही होना आवश्यक है।
2.एक ही पक्षकारो या उनके प्रतिनिधियों के मध्य वाद होना चाहिये।
3. वाद एक ही हक़ के लिए किये गए हो।
4.न्यायालय जिसमे पूर्व वाद विचाराधीन है,बाद में प्रस्तुत वाद (Subsequent suit) में चाहा गया अनुतोष को प्रदान करने का वह न्यायालय क्षेत्राधिकार रखता हो।
5.पूर्ववर्ती वाद का उसी न्यायालय में जिसमे बाद का वाद प्रस्तुत हुआ है या अन्य न्यायालय में, भारत के बाहर वाले सीमाए जो केंद्रीय सरकार द्वारा स्थापित है या उच्चतम न्यायालय के समक्ष लम्बित हो।
इस धारा के प्रावधान आज्ञापक है।यह धारा पश्चात्वर्ती वाद के प्रतुत करने का वर्जन न कर वाद का विचारण जिसे स्थगित किया है का वर्जन करती है।
अब हम इसके विवेचन के लिए विभिन्न न्याय निर्णय आपकी सुविधा के लिए नीचे दिए जा रहे हैं - -
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय - -
(1).प्रथम वाद उप किरायेदारी एवम युक्ति युक्त आवश्यकता का प्रशन अन्तर्ग्रस्त एवम पश्चात्वर्ती वाद केवल सदभावी व युक्तियुक्त
बाबत है---दोनों ही वाद में एक ही प्रशन अन्तर्ग्रस्त है व पश्चात्वर्ती वाद में कार्यवाही स्थगित की।
1999(2)DNJ (राज.)744
(2) इस आशय का वाद प्रस्तुत किया गया था कि वादी आधे संपत्ति का हिस्सेदार था और उस का विभाजन कर दिया जावे। धारा 10 के अंतर्गत आवेदन किया गया था कि इसी संबंध में एक वाद उच्च न्यायालय में भी विचाराधीन है अतः इस वाद को स्थगित कर दिया जावे। अधिकार स्थापित किए जाने के बावजूद वादी आधे हिस्से मैं कभी कब्जेदार नहीं हो सका था। जबकि अन्य वाद तथ्य सामान नहीं थे। वाद साम्या अथवा न्यायिक दृष्टिकोण में स्थगित नहीं किया जा सकता।
1994 ए आई आर (पंजाब व हरियाणा) 47
(3) स्थगन के वाद में प्रार्थी गण द्वारा उनके आधिपत्य की एवं जबरन बेदखली से सुरक्षा हेतु वाद पेश किया गया उसके बाद भूस्वामी ने भी किराया अदा करने में चूक के आधार पर बेदखली हेतु वाद पेश किया। पश्चातवर्ती वाद में कार्यवाहियों को स्थगित किए जाने का आवेदन खारिज कर दिया गया। दोनों वादों में विवादित बिंदु वास्तविकता से परे हैं अभिनिर्धारित किया गया कि विचारण न्यायालय ने अधिकारिता की त्रुटि या अवैधता नहीं की है।
1999(1)DNJ(Raj.)262
(4.)पश्चात्वर्ती वाद में वही विवाद्यक अन्तर्विष्ट है जो जो वादी के वर्तमान वाद में है।तथा अनुतोष भी एक ही है।पश्चात्वर्ती वाद की कार्यवाही स्थगित की गयी।
2009(1) DNJ(Raj.)224
(5) जहां प्रतिवादी व वादी द्वारा दाखिल किए गए वाद में मामला एक समान था और प्रतिवादी का वाद वादी के वाद से समय के प्रश्न पर पूर्वोत्तर दाखिल किया गया था वहां वादी के वाद को स्थगित किए जाने योग्य माना गया और इसलिए उसको स्थिगित कर दिया गया।
2006 ए आई आर (एनओसी) 285 (पंजाब एंड हरियाणा)
(6)वाद के विचारण पर रोक के बावजूद अन्तर्वती आवेदन पर विचार किया जा सकता है।
2008(1)DNJ (Raj.) 128
(7).पूर्ववती व पश्चात्वर्ती वाद में विवाद्यक समान होने पर पश्चात्वर्ती स्थगित कर दिया जायेगा।
AIR 1993 Mad.90
( 8).आपराधिक मामला उसी विषय वस्तु पर होना तथा यह अभिवाक की सिविल
वाद स्थगन नहीं होने से उसकी प्रतिरक्षा जबाब दिए जाने से प्रकट हो जायेगी।इस अभिवाक को नहीं माना गया।तथा सिविल वाद को स्थगित नहीं किया जा सकता है।
Civil Court C 433
(9 ).धारा 10 सिविल वादों पर ही लागू होती है।अन्य कार्यवाहियों विचाराधीन होने मात्र
से या पश्चात्वर्ती कार्यवाही स्थगित नहीं होगी।
AIR 1995 Guj.220
(10).इस धारा या धारा 151 के अंतर्गत पूर्व वर्ती वाद(earlier suit)को स्थगित नहीं
किया जा सकता है।
AIR 1999 Pat. 103
(11)धारा 10 में विशिष्ट उपबंध उपलब्ध है तो न्यायालय धारा 151 सी पी सी के
अंतर्गत अन्तर्निहित शक्तियो का उपयोग करने का अधिकार नहीं है।
AIR 1991 All.216
( 12) विभाजन हेतु दो वाद दाखिल किए गए। दोनों वादों में पक्षकार सम्मान ही थे तथा दोनों ही वाद पुश्तैनी संपत्तियों के विभाजन के लिए थे अतएव, ऐसी परिस्थितियों के अधीन धारा 10 को लागू होना चाहिए और दोनों वादों को साथ साथ विचारण किया जाना चाहिए।
(13) प्रतिवादी गण को वादग्रस्त संपत्ति पर कब्जा करने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिए वाद दाखिल किया गया था। एक दूसरा वाद वादग्रस्त संपत्ति के बंटवारे के लिए दायर किया गया था। वाद में अन्य संपत्ति के बंटवारे के लिए दावा किया गया था।। निर्धारित किया गया कि दोनों वादों की विषय-वस्तु भिन्न थी इसलिए वाद को स्थगित नहीं किया जा सकता था।
1994 ए आई आर (इलाहाबाद) 81
(14) वादी ने संयुक्त संपत्ति के विभाजन एवं अलग कब्जे हैतू वादा किया था। अनरजिस्टर्ड समझौता हुआ था और विक्रय पत्र निष्पादित किया गया था। बाद में संपत्ति अन्य क्रेता को बेच दी गई। यह विक्रय संयुक्त स्वामियों ने किया था और प्रतिपल को आपस में बांट दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए कहा कि वादी का कोई दवा नहीं बनता था।
1994 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 651
(15) एक ही वाद विषय दोनों वादों मैं होना चाहिए। पूर्ववाद की वाद पत्र की प्रति पेश ना किया गया हो या जवाब दो वापस ना हुआ हो, फिर भी बाद में प्रस्तुत वाद की कार्यवाहियों को न्यायालय द्वारा स्थगित किया जा सकता है।
1995 ए आई आर (केरल) 57
(16) जहां पूर्व के बाद के संबंध में प्रतिवादी के पक्ष में न्यायालय की डिक्री पारित की गई थी यह डिग्री बंदोबस्ती विलेख के आधार पर पारित की गई थी किंतु पश्चातवर्ती वाद में यह कहा गया कि उक्त विलेख धोखाधड़ी से संबंधित था वहां यह अभिनिर्धारित किया गया कि पश्चातवर्ती वाद धारा 10 के अंतर्गत स्थगित नहीं किया जा सकता है जब तक की पूर्व के वाद में कोई निर्णय ना हो जाए।
1999 ए आई आर (मद्रास) 99
(17) वाद के विचरण का स्थगन अंतर्वर्ती अनुतोषो के लिए आवेदन पत्रों पर विचार करने का प्रतिषेध नहीं करता है।
2008 ए आई आर (एनओसी) 208( राजस्थान)( डी. बी.)
(18) प्रकरण में पक्षकार द्वारा समस्त बचाव के अभिवचन नहीं लाने से यह माना जाएगा कि पक्षकार ने उन का परित्याग कर दिया तथा वह उन अभिवचनो का सहारा नहीं ले सकता।
1994 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट)2145
(19) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के अंतर्गत उपबंधित शक्तियों का प्रयोग करने हेतु कोई भी पक्षकार न्यायालय में तभी निवेदन कर सकता है जबकि संहिता की शेष अन्य धाराओं मैं शक्तियों के प्रयोग करने हेतु कोई अन्य प्रावधान उपलब्ध नहीं होता है। संहिता की धारा 10 के तहत उस लंबित वाद के विचारण के दौरान विचारण न्यायालय कोई अग्रिम कार्रवाई उस स्थिति में अवश्य नहीं करेगी जबकि वाद उन्ही पक्षकारों के मध्य उसी वाद बिंदु के ही मुद्दे पर संस्थित किया गया हो अथवा यदि उसी हक के संदर्भ में उसी न्यायालय में या अन्यत्र भारतवर्ष में किसी भी भाग में कोई वाद उन्ही पक्षकारों के बीच लंबित हो, तो उस दशा में भी विचारण न्यायालय वाद में निश्चित तौर पर कोई अग्रिम कार्रवाई नहीं करेगी।
1991 ए आई आर (इलाहाबाद) 216
(20) विहित प्राधिकारी के समक्ष विचाराधीन कार्रवाई को वाद नहीं कहा जाएगा तथा वादी के पश्चातवर्ती वाद को स्थगित भी नहीं किया जा सकता।
2000 (3) WLC (Raj) 171
(21) जब एक पश्चातवर्ती वाद तथा दूसरा पश्चातवर्ती वाद दोनों के मध्य एक मुद्दे पर वाद बिंदु के चरण में सीधे तौर व सारभूत रूप में एकात्मक संबंध के मौजूद होने के कारण उन दोनों वादों में माननीय न्यायालय ने स्थगन का आदेश पारित किया।
1993 ए आई आर (मद्रास) 90
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