Jurisdiction of the courts Section 9 CPC. (न्यायालयो की अधिकारिता ) - CIVIL LAW

Monday, May 28, 2018

Jurisdiction of the courts Section 9 CPC. (न्यायालयो की अधिकारिता )

Jurisdiction of the courts --Section 9 CPC.
न्यायालयो की अधिकारिता --धारा 9 सी. पी. सी.


धारा 9 सिविल प्रक्रिया संहिता - जब तक कि वर्जित न हो, न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेंगे -- न्यायालयों को (इसमें अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए
) उन वादों के सिवाय, जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है, सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।

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स्पष्टीकरण 1-- वह वाद, जिसमें संपत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, इस बात के होते हुए भी कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यो या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलंबित है, सिविल प्रकृति का वाद है।

स्पष्टीकरण 2 -- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, यह बात तात्विक नहीं है कि एक में निर्दिष्ट पद के लिए कोई फीस है या नहीं अथवा ऐसा पद किसी विशिष्ट स्थान से जुड़ा है या नहीं।

Section 9 --Courts to try all civil suit unless barred --The court shall (subject to the provisions herein contained) have jurisdiction to try all suits of a civil nature excepting suits of which their cognizance is either expressly or implied barred.

{Explanation 1}---A suit in which the right to property or to an office is contested is a suit of a civil nature,notwithstanding that such right may depend entirely on the decision of questions as to religious rites or ceremonies
.
{Explanation 2}---For the purposes of this section,it is immaterial whether or not such office is attached to a particular place.




  इस प्रकार स्पष्ट हे की सिविल प्रकति का वाद सुनने की अधिकारिता सिविल न्यायालयों को हे बशर्ते किसी विधि से उनका क्षेत्राधिकार वर्जित न कर दिया हो।  शीघ्र व अच्छे न्याय के लिए सिविल न्यायलयों विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है।सिविल न्यायलयों को क्षेत्राधिकार दिया गया है ।

Jurisdiction--क्षेत्राधिकार से अभिप्राय उस शक्ति से है जो कि न्यायालय में वादों, अपीलों एवम प्रथनापत्रो को सुनवाई हेतु ग्रहण करने हेतु प्राप्त होती है।क्षेत्राधिकार--विषय वस्तु सम्बन्धी, स्थानीय या प्रादेशिक, आर्थिक व आरम्भिक या अपीलीय होते है।

      यह कि कोई सिविल प्रकति का वाद हे या नहीं यह वाद की विषय वस्तु से सम्बन्ध रखता है।
सिविल न्यायालय के अधिकार - -
  कार्यवाहियां दो प्रकार की होती है - - दीवानी एवं आपराधिक, और इसी के आधार पर न्यायालयों के मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है (1) दीवानी न्यायालय (2) दांडिक न्यायालय। दीवानी न्यायालय केवल दीवानी प्रकृति के तथा दांडिक न्यायालय केवल आपराधिक प्रकृति के मामलों को सुनने का क्षेत्राधिकार रखते हैं।

संहिता में यह एक महत्वपूर्ण धारा है जो सिविल न्यायालय के अधिकार के संबंध में विवेचना करती है। इस धारा को विस्तृत रूप से समझने के लिए विभिन्न न्यायिक निर्णय आपकी सुविधा के लिए दिये जा रहे हैं --

(1) अंतरिम निषेधाज्ञा के विचारण के समय क्षेत्र अधिकार के प्रश्न को निर्णित नहीं किया जा सकता है। वाद पत्र के कथनो को ही इस अवस्था में पढ़ा जाना चाहिए।
1995 ए आई आर (राजस्थान)  97

(2) केवल वाद पत्र के आधार पर न्यायालय के क्षेत्राधिकार का विनिश्चय नहीं हो सकता बल्कि इसका विनिश्चय वाद पत्र तथा वाद उत्तर के आधार पर सारवान विवाद्यक के आधार पर किया जाना चाहिए।
1994  ए. आई. आर. (कर्नाटक) 105




(3) वाद के विचारण के दौरान यदि न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में कोई आपत्ति उठाई जाती है तो ऐसे विवाद्यक को पारंपरिक विवाद्यक मानते हुए उसका विनिश्चय किया जाना चाहिए।
1982 ए आई आर (मुंबई) 263

(4) यदि किसी व्यवहार न्यायालय को किसी विषय को विनिश्चितकरने का अधिकार न प्राप्त हो तो वह उस मामले के गुण दोष का विनिश्चय न कर सकेगा। वह केवल क्षेत्राधिकार के प्रश्न को विनिश्चित करके वाद पत्र समुचित न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु लौटा देगा, यदि वह इस निर्णय पर पहुंचता है कि उसे क्षेत्राधिकार नहीं है।
1965 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 338

(5) जिस मामले में ऐसे तथ्य दिए गए हैं जिनसे किसी अन्य न्यायालय का क्षेत्राधिकार प्रतीत हो तो तो ऐसे मामलों में उस न्यायालय को उन समस्त ऐसे तथ्यों को विचारित करना आवश्यक होगा जिनसे उसे क्षेत्राधिकार प्राप्त हो सके।
1965 ए आई आर (मद्रास) 450




(6) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 सिविल न्यायालय को वह शक्ति प्रदान करती है जिसके परिणाम स्वरुप उच्च न्यायालय एक सिविल प्रकृति के वाद का विचरण करने का क्षेत्रधिकार रखता है। दूसरे शब्दों में, संहिता की धारा 9 ने एक सिविल न्यायालय की शक्ति को केवल सिविल प्रकृति के वादों या विवादों तक की ही प्रतिबंधित कर दिया है। वर्तमान मामले में अपीलार्थी वादी ने इस प्रकार की घोषणा के लिए अपील किया था कि अपराधिक न्यायालय द्वारा जारी किया हुआ समन विधि विरुद्ध एवं शून्य था। उपरोक्त वर्णित अपीलार्थी वादी ने एक ऐसी घोषणा के संबंध में भी माननीय न्यायालय के समक्ष याचना किया कि न्यायालय ने मामला में जुर्माना दो चक्र में किया जो कि बगैर उसके विधिक प्राधिकार का था। उपर्युक्त वाद के तथ्यों व परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए माननीय न्यायालय ने यह निर्णय किया कि केवल इस साधारण कारणवश कि उपरोक्त वर्णित वाद के वांछित अनुतोष को प्रदान करने के क्षेत्र अधिकार को मात्र एक सिविल न्यायालय रखती थी। जबकि मामले के संबंध में जिस प्रक्रिया या कार्यवाही के ढंग का विद्वान मजिस्ट्रेट के समक्ष अनुसरण किया गया वह एक सिविल  कार्यवाही ना होकर बल्कि एक आपराधिक प्रवृत्ति की कार्यवाही  थी।
1992  ए.आई.आर . (कोलकाता)  83

(7) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के प्रावधानों के अनुसार सिविल न्यायालय के पास सिविल प्रकृति के सभी मामलों का विचारण करने की अधिकारिता होती है, जब तक उन्हें कानून के विशिष्ट प्रावधानों द्वारा या अनुप्रयोग द्वारा वर्जित ना किया जाए।
1997 ए आई आर (राजस्थान) 42

(8) विस्थापित व्यक्ति को पाकिस्तान में छोड़ दी गई जमीन के बदले में भूमि का आवंटन किया गया। उच्च न्यायालय द्वारा यह धारण किया गया कि सिविल न्यायालय को यह घोषणा करने की कोई अधिकारिता नहीं थी कि अपीलार्थी पाकिस्तान में भूमि के स्वामी थे और उसके बदले में आवंटित भूमि को रखने के हकदार थे।
1995 (1)SSC (Sup.) 233

(9) जहां सेवा संबंधी कोई मामला 5 वर्ष की अवधि से न्यायालय के सम्मुख मुकदमे के रूप में संस्थित रहा वहां यह आदेश दिया जाना अनुचित बताया गया कि सिविल न्यायालय को द्वितीय अपील की सुनवाई के समय कोई क्षेत्राधिकार नहीं प्राप्त है जबकि मामले से संबंधित प्रांसगिक नियमों पर विचार नहीं किया गया था निर्णय के लिए प्रति प्रेषित किया गया।
1999 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 294




(10) एक मामले में सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार न्यायालय के सम्मुख प्रश्नगत था वहां यह अभिंनिर्धारित किया गया कि इस संदर्भ में कोई निर्णय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 112 की उपधारा के सुसंगत उपबंधों के अधीन किया जाना न्यायोचित होगा।
2000 ए आई आर (मुंबई) 444

( 11) दीवानी न्यायालय को भूमि अर्जुन कार्रवाई क्षेत्राधिकार नहीं है। व्यथित व्यक्ति को अर्जन कार्रवाई के विरुद्ध उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय मैं रिट याचिका का अनुतोष प्राप्त होता है।
1996 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 523

(12) करार में माध्यस्थम खड के मात्र विद्यमान होने से स्वचालित ढंग से सिविल न्यायालय की अधिकारिता का वर्जन नहीं हो जाता है।
2006 ए आई आर (राजस्थान) 56

(13) जब वाद मिट्टी के तेल का वितरण करने के लिए याचिका मंजूर की गई अनुज्ञप्ति मैं हस्तक्षेप करने से राज्य सरकार को अवरुद्ध करने वाले भी व्यादेश हेतु दाखिल किया गया और आवश्यक वस्तु अधिनियम अपील एवं पुनरीक्षण की स्कीम पूर्ण स्कीम के लिए उपबंध करता है तब सिविल न्यायालय की अधिकारिता का अवलम्ब लिया  जा सकता है।
2007 ए आई आर (गुजरात) 27

(14) एक मामले में न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रश्न निहित नहीं था। स्थाई किराएदार ने भूखंड को बेच दिया। किराएदार यह साबित नहीं कर सका कि वह सरक्षित किराएदार था। स्थाई किरायेदारी का प्रमाण पत्र भी अंतरंण कर्ता के पक्ष में जारी नहीं किया गया था। यह मामला दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर नहीं था।
1994 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 116

(15) वादी को परियोजना के पूरा किया जाने तक प्रभारित कार्य के आधार पर नियोजित किया गया। सेवा की समाप्ति हो गई। जहां प्रश्न क्या पर्यवसान सिंपलिसिटीर प्रमाणित स्थाई आदेशों के अधीन नियमों के प्रकाश में या आई डी ए के परिसर के अधीन आने वाले कथित आदेशों के उल्लंघन में प्रभावित किया गया वहां सिविल न्यायालय की अधिकारिता को वर्जित माना गया।
2008 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट)1315

(16) जहां अपील का निस्तारण गुण दोष के आधार पर किया जाना चाहिए, वहां इसके लिए उचित प्रक्रिया यह है कि ज्योंही विवाचक गण किसी भी विवाद का अवधारण करते हैं,त्यों ही सिविल प्रक्रिया के आदेश 41 नियम 27 के अधीन अतिरिक्त साक्ष्य के रूप में लंबित कार्यवाही में अभिलेख पर लाया जाना चाहिए।
1997 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1039




(17) बिना न्यायालय के अनुमति के कृषि भूमि को अवयस्क के संरक्षक द्वारा बेचने पर विक्रय विलेख को शून्य करार करने का दावा दीवानी न्यायालय में पोषणीय है, राजस्व न्यायालय को विक्रय विलेख को शून्य करार करने का अधिकार नहीं है।
1996  ए आई आर (इलाहाबाद) 90

(18) हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 व 17 के अधीन उलेखित उपबंधों के अनुसार जब एक पति किसी दूसरी महिला से विवाह कर लेता है, तब वहां कोई उपचार नहीं होता। सामान्य विधि के अंतर्गत वह यह घोषणा करने का अधिकार रखती है कि उसके पति ने जो दूसरा प्यार किया है, वह अवैधानिक व शून्य है।
1995  ए आई आर (इलाहाबाद) 243

(19) वादी से रकम की वसूली करने से इस को अवरुद्ध करने वाले विद्युत बोर्ड के विरुद्ध घोषणा एवं व्यादेश हेतु वाद दाखिल किया गया। इस मामले में तथ्य प्रदर्शित कर रहे थे कि मीटर सही पाठ्यांक नहीं अभिलिखित कर रहा था और उसको परिवर्तित कीये जाने की आवश्यकता थी। यद्यपि वादी ने मीटर को बदलने के लिए रकम जमा किया लेकिन विद्युत बोर्ड ने मीटर बदलने के बजाय एक बड़ी रकम की मांग करने वाला पत्र भेजा। यहां सिविल वाद को पोषणीय माना गया।
2006 ए आई आर (राजस्थान) 166

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