General power of transfer and withdrawal --Section 24 CPC.
अंतरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति --धारा 24 सी. पी.सी.
धारा 24 -- अंतरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति --
(1) किसी भी पक्षकार के आवेदन पर और पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात और उनमें से जो सुनवाई के इच्छुक हो उनको सुनने के पश्चात या ऐसी सूचना यह बिना स्वप्रेरणा से उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय किसी भी प्रक्रम मैं --
(क) ऐसे किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही को जो उसके सामने विचारण या निपटारे के लिए लंबित है अपने अधीनस्थ ऐसे किसी न्यायालय को अंतरित कर सकेगा जो उसका विचारण करने या उसे निपटाने के लिए सक्षम है अथवा;
(ख) अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही प्रत्याहरण कर सकेगा तथा -
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(१) उसका विचारण या निपटारा कर सकेगा अथवा
(२) अपने अधीनस्थ ऐसे किसी न्यायालय को उसका विचारण या निपटारा करणी लिए अंतरित कर सकेगा जो उसका विचारण करने या उसे निपटाने के लिए सक्षम हैं अथवा
(३) विचारण या निपटारा करने के लिए उसी न्यायालय को उसका प्रत्यय अंतरण कर सकेगा जिससे उसका प्रत्याहरण किया गया था।
(2) जहां किसी वाद या कार्यवाही का अंतरण या प्रत्याहरण उप धारा (1) के अधीन किया गया वहां वह न्यायालय जिसे ऐसे वाद या कार्यवाही का तत्पश्चात विचारण करना है या उसे निपटाना है अंतरण आदेश मैं दिए गए विशेष निर्देश के अधीन रहते हुए या तो उसका पुनः विचरण कर सकेगा या उस प्रक्रम से आगे कार्रवाई करेगा जहां से उसका अंतरण या प्रत्याहरण क्या गया था।
(3) इस धारा के प्रयोजनों के लिए --
(क) अपर और सहायक न्यायाधीशों के न्यायालय जिला न्यायालय के अधीनस्थ समझे जाएंगे
(ख) " कार्यवाही" के अंतर्गत किसी डिक्री या आदेश के निष्पादन के लिए कार्यवाही भी है।
(4) किसी लघुवाद न्यायालय से इस धारा के अधीन अंतरित या प्रत्याहत किसी वाद का विचारण करने वाला न्यायालय ऐसे वाद के प्रयोजन के लिए लघुवाद न्यायालय समझा जाएगा।
(5) कोई वाद या कर्यवाही उस न्यायालय से इस धारा अधीन अंतरित की जा सकेगी जिससे उसका विचारण करने की अधिकारिता नहीं हैं | [1976 के अधिनियम संख्या 104 द्वारा (1/2/1977) से अंतःस्थापित ]
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प्रयोज्यता-- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के प्रयोजन हेतु मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण वर्तमान न्यायालय के अधीनस्थ एक सिविल प्रकृति का न्यायालय होता है। यदि यह तर्क सत्य मान लिया जाने पर कि प्रश्नगत वाद के संदर्भ में संहिता की धारा 24 प्रयोज्य नहीं होती है प्रश्नगत वाद का स्थानांतरण नहीं किया जा सकता था। तब भी वहां संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत जो शक्तियां उपर्युक्त वर्णित प्रसंग में वर्तमान न्यायालय को प्रदान की गई है उसे न तो मोटर वाहन अधिनियम के प्रावधानों यह उपबंधों द्वारा छीना जा सकता है और ना ही उसे कम किया जा सकता है जिन्हें वे उक्त अधिनियम के अंतर्गत गठित किए गए न्यायाधिकरण के क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार को निर्धारित करते हैं। उपरोक्त वर्णित तथ्यों व परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए माननीय न्यायालय ने अंततोगत्वा इस मत का भी समर्थन किया कि एक संवैधानिक प्रावधान को संसद द्वारा अधिनियमित एक सामान्य विधानमंडल से पराजित नहीं किया जा सकता है।
1989 ए आई आर (मद्रास) 350
संहिता के इस प्रावधान हो विभिन्न न्यायिक निर्णय से समझने का प्रयास करते हैं।
(1) भूमि के विक्रय के करार के विशिष्ट पालन के वाद में प्रश्नगत भूमि (सीलिंग और विनियमन ) अधिनियम 1976 के शासकीय आदेश दिनांक 24 - 2-1990 द्वारा मुक्त थी, मामले का आधोपात विचरण अपेक्षित था। करार उप मुक्ति के बाद किया गया। करार आघयतः शून्य नहीं था तथा वाद पत्र में वाद हेतुक दर्शित था। वाद का विचारण गुण दोष के आधार पर होना आवश्यक है। मध्यवधि मैं प्रतिवादी को यथास्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया गया। जिला न्यायाधीश को न्याय हित में वाद किसी अन्य न्यायालय में स्थानांतरित किए जाने के लिए निर्देशित किया गया।
2007 (3 )WLC (Raj) 104
( 2) एक बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि न्यायालय के विरुद्ध मामले में निष्पादन को तत्काल दृष्टांत पर स्थांतरित कर दिया गया, वहां निर्णित ऋणी के विरुद्ध एक नया निष्पादन का पश्चातवर्ती होने बोलने वाला ऐक निर्णित ऋणी वास्तविक न्यायालय को प्रतिबंधित नहीं करेगा।
1993 ए आई आर (राजस्थान) 68
(3) एक मामले में जहां बार एसोसिएशन द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि अधिवक्तागण किसी विशेष न्यायालय का बहिष्कार करेंगे किंतु इसके लिए कोई आधार न था अधिवक्ता ने उक्त प्रस्ताव का अनुसरण ना करने के लिए सूचना दी कि वह भविष्य में उक्त न्यायालय में नहीं जाएगा वहां यह अभिनिर्धारित किया गया कि उक्त अधिवक्ता का आचरण किया गया अव्यावसायिक एवं अधिवक्ता के स्तर पर निम्न स्तर का माना जाएगा।
1999 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 257
(4) एक मामले में जहां पत्नी के साथ अन्याय होने की संभावना पाई गई। वहां इसे रोकने के आशय से जयपुर न्यायालय में लंबित मामले का अंतरण भुवनेश्वर न्यायालय में कर दिया गया।
1997 (2) सिविल लॉ जनरल (उड़ीसा) 801
(5) एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभि निर्धारित किया है कि पूर्वोत्तर आवेदन पत्र को स्वीकृत कर वाद को अधीनस्थ पटना न्यायालय से विचारनार्थ मुंबई उच्च न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया गया इस मामले का विचारण एवं निस्तारण एक ऐसे दूसरे मामले के साथ किया गया, किस की अपील मुंबई न्यायालय में लंम्बित थी। लेकिन जब वाद में पटना न्यायालय में अपील को अंतरित करने के लिए आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया तब उसे खारिज कर दिया गया। दिन प्रतिदिन वाद के निस्तारण का निर्देश भी दिया गया।
1997 (2) सिविल लॉ जनरल( सुप्रीम कोर्ट) 201
(6) विवाह विच्छेद की याचिका कुटुंब न्यायालय में पति द्वारा पत्नी के विरूद्ध दायर की गई थी। पत्नी अपने पति से 300 किलोमीटर की दूरी पर निवास कर रही थी। दोनों एक दूसरे से पृथक रह रहे थे। याची पत्नी के पास स्वयं के प्रति रक्षा करने हेतु कोई स्वतंत्र आए या पर्याप्त साधन नहीं था और उसको अपनी वर्द्ध माता की भी देखभाल करनी पड़ती थी वहां पति द्वारा दाखिल की गई विवाह विच्छेद याचिका की सुनवाई हेतु इस मामले को उस न्यायालय को अंतरित किए जाने को न्यायोचित ठहराया जिसकी अधिकारिता के अंदर पत्नी रहती थी।
2006 ए आई आर (एनओसी) 931(ए. पी.)
(7) विवाह विच्छेद के मामले में याचीनी पत्नी के साक्ष्य के अंतिम चरण में जो कि शीघ्र ही समाप्त हो सकता है इस स्तर पर मामले के सीकर से बीकानेर स्थांतरण का कोई कारण नहीं।
2007 WLC (Raj) (UC)303
(8) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के अंतर्गत किसी भी प्रश्न पत्र वाद का प्रत्याहरण स्तांतरण करने की शक्तियां उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायाधीश को प्रदान की गई है। उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायाधीश शक्तियों का प्रयोग केवल उन्हीं वादों के स्थांतरण एवं प्रत्याहरण के मामलों में करते हैं जो कि न्यायालय के अधीनस्थ किसी भी न्यायालय में लंबित होते हैं।
1991 ए आई आर (दिल्ली) 280
(9) वैवाहिक कार्यवाही पति द्वारा पत्नी के विरुद्ध प्रारंभ की गई। यह पत्नी के लिए सुविधा की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पत्नी दिल्ली में काम कर रही थी। पति के द्वारा कार्यवाही दिल्ली से दूर दाखिल की गई। वाद दिल्ली को अंतरित कर दिया गया।
2002 ए आई आर (सुप्रीमकोर्ट) 396
(10) संविधान का अनुच्छेद 227 न्यायालय को अधीक्षक की शक्ति प्रदान किया है और तथाकथित शक्ति को केवल प्रशासनिक अधीक्षण तक ही नहीं सीमित किया जाता है, अनुच्छेद 227 के साथ वह अपने साथ न्यायिक निगरानी की शक्तियों को भी सम्मिलित करती है।
1990 ए आई आर (मध्य प्रदेश) 289
(11) राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक मामले में निर्धारित किया है कि किसी वाद के विषय का निर्धारण हो जाने पर वहां संहिता की धारा 24 (5) का खंड (1) उक्त वाद के संबंधित विचारण न्यायालय के क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर पीड़ित पक्षकार को आपत्ति जाहिर करने से प्रतिषेध करती है। उक्त वर्णित स्थिति में उत्पन्न होने पर वाद में न्याय को विफल हो जाना चाहिए। वाद मैं न्याय के विफल हो जाने की स्थिति वहां तभी उत्पन्न हो सकती है जब विचारण न्यायालय के पास वाद का विचारण करने हेतु क्षेत्राधिकार का अभाव होता है। लेकिन वहां न्याय के असफल होने की स्थिति नहीं पैदा हो सकती है, जहां पर वाद का क्षेत्रीय अधिकार का निर्धारण करने के मुद्दे पर कोई भी न्यायालय तकनीकी त्रुटि कारीत करता है।
1990 ए आई आर (राजस्थान) 87
( 12) सिविल प्रक्रिया संहिता धारा 24 के अंतर्गत वाद स्थांतरण का आदेश करने के पूर्व पक्षकारों को सुना जाना आवश्यक है।
1989 ए आई आर (कर्नाटक) 207
(13) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के तहत विवेकिक शक्ति का प्रयोग करने के पूर्व यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि स्थांतरण का तर्कसंगत मामला बनता है। इस अधिकारिता का प्रयोग सावधानी पूर्वक एवं सतर्कता के साथ करना होता है।
2008 (3) DNJ (Raj.)1241
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