निष्पादन का रोका जाना व निष्पादन की रीति- - आदेश 21 नियम 26 से 36 सी.पी.सी.Stay Of Execution And Mode Of Execution --Order 21 Rule 26 To 36 CPC.
(1) वह न्यायालय, जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है, ऐसी डिक्री का निष्पादन पर्याप्त हेतुक दर्शित किए जाने पर युक्तियुक्त समय के लिए इसलिए रोकेगा की निर्णित ऋणी समर्थ हो सके कि वह डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से या डिक्री के या उसके निष्पादन के बारे में अपीलीय अधिकारिता रखने वाले किसी न्यायालय से निष्पादन रोक देने के आदेश के लिए आवेदन कर ले तो प्रथम बार के न्यायालय द्वारा या अपील न्यायालय द्वारा किया जाता यदि निष्पादन उसके द्वारा जारी किया गया होता या यदि निष्पादन के लिए आवेदन उससे किया गया होता।
(2) जहां निर्णित ऋणी की संपत्ति या शरीर निष्पादन के अधीन अभिग्रहित कर लिया गया है वहां वह न्यायालय, जिसने निष्पादन जारी किया है, ऐसे आवेदन का परिणाम लंबित रहने तक ऐसी संपत्ति के प्रतिस्थापन या ऐसे व्यक्ति के उन्मोचन के लिए आदेश कर सकेगा।
( 3)निर्णित ऋणी से प्रतिभूति अपेक्षित करने या उस पर शर्तें अधिरोपित करने की शक्ति-- न्यायालय निष्पादन को रोकने के लिए या संपत्ति के प्रत्यास्थापन के लिए या निर्णित ऋणी के उन्मोचन के लिए आदेश करने से पहले निर्णित ऋणी से ऐसी प्रतिभूति अपेक्षित करेगा या उस पर ऐसी शर्ते अधिरोपित करेगा जो वह ठीक समझे।
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नियम 27- उन्मोचित निर्णित ऋणी का दायित्व-
नियम 26 के अधीन प्रत्यास्थापन या उन्मोचन का कोई भी आदेश निष्पादन के लिए भेजी गई डिक्री के निष्पादन के निर्णित ऋणी की संपत्ति या शरीर को फिर से अभिग्रहित किया जाने से निवारित नहीं करेगा।
नियम 28-- डिक्री पारित करने वाले न्यायालय का या अपील न्यायालय का आदेश उच्च न्यायालय के लिए आबद्धकर होगा जिससे आवेदन किया गया है -
डिक्री पारित करने वाले न्यायालय का या पूर्वोक्त जैसी अपील न्यायालय का ऐसे डिक्री के निष्पादन के संबंध में कोई आदेश उस न्यायालय के लिए आबद्ध कर होगा जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है।
नियम 29-- डिक्री दार और निर्णित ऋणी के बीच वाद लंबित रहने तक निष्पादन का रोका जाना--
जहां उस व्यक्ति की और से, जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई थी, कोई वाद ऐसे न्यायालय की डिक्री के धारक के या ऐसी डिक्री के जो ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित की जा रही है धारक के विरुद्ध किसी न्यायालय में लंबित है न्यायालय प्रतिभूति के बारे में या अन्यथा ऐसे निबंधनो पर, जो वह ठीक समझे, डिक्री के निष्पादन को तब तक के लिए रोक सकेगा जब तक लंबित वाद का विनिश्चय ना हो जाए;
परंतु यदि डिक्री धन के संदाय के लिए है तो न्यायालय उस दशा में जिसमें वह प्रतिभूति अपेक्षित किए बिना उसका रोकना मंजूर करता है, ऐसा करने के लिए अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा।
नियम 30 - धन के संदाय की डिक्री -
धन के संदाय की हर डिक्री, जिसके अंतर्गत किसी अन्य अनुतोष के अनुकल्प के रूप में धन के संदाय की डिक्री भी आती है, निर्णित ऋणी से सिविल कारागार मैं निरोध द्वारा या उसकी संपत्ति को कुर्की और विक्रय द्वारा या दोनों रीती से निष्पादित की जा सकेगी।
नियम 31-- विनिर्दिष्ट जंगम संपत्ति के लिए डिक्री-
(1) जहां डिक्री किसी विनिर्दिष्ट जंगम वस्तु मैं के अंश के लिए है वहां यदि जंगम वस्तु या अंश का अभी ग्रहण साध्य हो तू उस जंगम वस्तु के या अंश के अभी ग्रहण द्वारा और उस प्रकार को जिस के पक्ष में वह न्याय निर्णित क्या है या ऐसे व्यक्ति को, जिससे वह अपनी और से परिदान प्राप्त करने के लिए नियुक्त करें,परिदान द्वारा निर्णित ऋणी सिविल कारागार में निरोध द्वारा या उसकी संपत्ति को कुर्की द्वारा या दोनों रीती से निष्पादित की जा सकेगी।
(2) जहां उप नियम(1) के अधीन की गई कुर्की 3 मासके लिए पर्वत रह चुकी है वहां यदिनिर्णित ऋणी ने डिक्री का आज्ञानुवर्तन नहीं किया है और डिक्री दार ने कुर्क की गई संपत्ति के विक्रय किए जाने के लिए आवेदन किया है तो ऐसी संपत्ति का विक्रय किया जा सकेगा और आगमों मैं से न्यायालय डिक्री दार को उन दशामें, जहां जंगम संपत्ति के परिदान के अनुकल्प स्वरूप दिए जाने में कोई रकम डिक्री द्वारा विनिश्चित की गई है, ऐसी रकम और अन्य दशाओ मैं ऐसा प्रति कर, जो वह ठीक समझे, दे सकेगा और बाकी (यदि कोई हो) निर्णित ऋणी के आवेदन पर उसे देगा।
(3) जहां निर्णित ऋणी ने डिक्री का अज्ञान वर्तन कर दिया गया है और उसका निष्पादन करने के लिए सभी खर्चों का संदाय कर दिया गया है जिनका संदाय करने के लिए वह आबद्ध है या जहां कुर्की की तारीख से (3मास) अंत होने तक संपत्ति के विक्रय किए जाने के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया है या यदि किया गया है तो नामंजूर कर दिया गया है वहां कुर्की समाप्त हो जाएगी।
नियम 32- विनिर्दिष्ट पालन के लिए दांपत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए या व्यादेश के लिए डिक्री-(1) जहां उस पक्षकार को, जिसके विरुद्ध संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए, या दांपत्यअधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए या व्यादेश के लिए कोई डिक्री पारित की गई है, उस डिक्री के आज्ञानुवर्तन के लिए अवसर मिल चुका है और उसका अज्ञानुवर्तन करने में वह जानबूझकर असफल रहा है वहां वह डिक्री दांपत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए डिक्री की दशा में, उसकी संपत्ति की कुर्की के द्वारा या संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए या व्यादेश के लिए डिक्री की दशा में सिविल कारागार में उसको निरोध द्वारा या उसकी संपत्ति की कुर्की द्वारा, या दोनों रीती से प्रवृत्त की जा सकेगी।
(2) जहां वह पक्ष कार जिसके विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन के लिए या व्यादेश के लिए डिक्री पारित की गई है, कोई निगम है वहां डिक्री उस निगम की संपत्ति की कुर्की द्वारा या न्यायालय की इजाजत से उसके निदेशको अन्य प्रधान अधिकारियों के सिविल कारागार में निरोध द्वारा या कुर्की और निरोध दोनों रीती से प्रवर्त की जा सकेगी।
(3) जहां उपनियम (1) या उपनियम (2) के अधीन की गई कोई कुर्की 6 मांस के लिए पर्वत रह चुकी है वहां यदि निर्णित ऋणी ने डिक्री का अज्ञानुवर्तन नहीं किया है और डिक्रीदार ने कुर्क की गई संपत्ति के विक्रय के लिए आवेदन किया है तो ऐसी संपत्ति का विक्रय किए जाने के लिए आवेदन किया है तो ऐसी संपत्ति का विक्रय किया जा सकेगा और आगमो मैं से न्यायालय डिक्री दार को ऐसा प्रतिकर दे सकेगा जो वह ठीक समझे और बाकी यदि कोई हो निर्णित ऋणी के आवेदन पर उसे देगा।
(4) जहां निर्णित ऋणी मैं डिक्री का आज्ञा- नुवर्तन कर दिया है और उसका निष्पादन करने के लिए सभी खर्चों का संदाय करने के लिए वह आबद्ध है या जहां कुर्की की तारीख से छः मांस का अंत होने तक संपत्ति के विक्रय किए जाने के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया है या यदि किया गया है तो नामंजूर कर दिया गया है वहां कुर्की नहीं रह जाएगी।
(5) जहां संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की या व्यादेश के किसी डिक्री का आज्ञानुवर्तन नहीं किया गया है वहां न्यायालय पूर्वोक्त सभी आदेशिकाओ के या उनमें से किसी के भी बदले में या उसके साथ निर्देश दे सकेगा की वह कार्य, जिसके किए जाने की अपेक्षा की गई थी, जहां तक हो सके, डिक्री दार या न्यायालय द्वारा नियुक्त किए गए किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निर्णित ऋणी के खर्चे पर किया जा सकेगा और कार्य कर दिया जाने पर जो व्यय उपगत हुए हो वे ऐसी रीति से अभीनिश्चित किए जा सकेंगे जो न्यायालय निर्दिष्ट करें और इस प्रकार वसूल किए गए जा सकेंगे मानो वे डिक्री में सम्मिलित हो।
स्पष्टीकरण-- शंकाओं के समाधान के लिए यह घोषित किया गया है कि शब्दावली " कार्य जिसके किए जाने की अपेक्षा की गई थी" निषेधात्मक एवं आज्ञापक व्यादेश आच्छादित करती है।
नियम 33-- दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्रीयो का निष्पादन करने में न्यायालय का विवेकाधिकार -
(1) नियम 32 में किसी बात के होते हुए भी, न्यायालय दांपत्य अधिकार के प्रतिस्थापन की डिक्री पति के विरुद्ध पारित करते समय यह तत्पश्चात किसी भी समय, यह आदेश कर सकेगा कि डिक्री इस नियम मैं उपबंधित रीती से निष्पादित की जाएगी।
(2) जहां न्यायालय उपनियम (1) के अधीन कोई आदेश किया है वहां यह आदेश कर सकेगा की डिक्री का अज्ञानुवर्तन ऐसी अवधि के भीतर न किए जाने की दशा में जो इस निमित्त नियत की जाए,निर्णित ऋणी डिक्री दार को ऐसे कालिक संदाय करेगा जो न्याय संगत हो और यदि न्यायालय यह ठीक समझे तो वह निर्णित ऋणी से अपेक्षा करेगा कि वह न्यायालय के समाधानप्रद रूप में डिक्रीदार को ऐसे कालिक संदाय प्रतिभूत करें।
(3) न्यायालय धन के कालिक संदाय के लिए उपनियम (2)के अधीन किए गए किसी भी आदेश में फेरफार या उपान्तर संदाय के समयो को परिवर्तित करके या रकम को बढ़ा या घटा करके समय पर कर सकेगा या इस प्रकार संदाय किया जाने के लिए आदिष्ट पूरे धन या उसके किसी भाग की बाबत अस्थाई रूप से निलंबित कर सकेगा और उसे पूर्णतः या भागत ऐसे पुनः प्रवर्तित कर सकेगा जो वह न्याय संगत समझे।
(4) इस नियम के अधीन संदत किए जाने के लिए आदिष्ट कोई भी धन इस प्रकार वसूल किया जा सकेगा मानो वह धन के संदाय की डिक्री के अधीन संदेय हो।
नियम 34-- दस्तावेज के निष्पादन या परक्राम्य लिखित के पृष्ठांकन के लिए डिक्री-
(1) जहां डिक्री किसी ऐसे दस्तावेज के निष्पादन के लिए या किसी परक्राम्य लिखित के पृष्ठांकन के लिए है और निर्णित ऋणी डिक्री का आज्ञानुवर्तन करने में उपेक्षा करता है या उसका अज्ञानुवर्तन करने से इंकार करता है वहां डिग्रीदार डिक्री के निबंधनो के अनुसार दस्तावेज या पृष्ठांकन या प्रारूप तैयार कर सकेगा और उसे न्यायालय को परिदत्त कर सकेगा।
(2) जब न्यायालय निर्णित ऋणी से यह अपेक्षा करने वाले सूचना के साथ प्रारूप की तमिल निर्णित ऋणी पर कराएगा कि वह अपने आक्षेप (यदि कोई हो) इतने समय के भीतर करें जितना न्यायालय इस निमित्त नियत करें।
(3) जहां निर्णित ऋणी प्रारूप के संबंध में आक्षेप करता है वहां उसके आक्षेप ऐसे समय के भीतर लिखित रूप से कथित किए जाएंगे और न्यायालय प्रारूप को अनुमोदित या परावर्तित करने वाला ऐसा आदेश करेगा जो वह ठीक समझे।
(4) डिक्री दार प्रारूप की एक प्रति ऐसे परिवर्तनों सहित (यदि कोई हो) जो न्यायालय ने निर्दिष्ट किए हो, उचित स्टांपपत्र पर, यदि तत्समय पर्वत विधि द्वारा ऐसा स्टांप अपेक्षित हो, न्यायालय को परिदत्त करेगा, और न्यायाधीश या ऐसा अधिकारी जो इस निमित्त नियुक्त किया जाए, ऐसे परिदत्त दस्तावेज को निष्पादित करेगा।
(5) इस नियम के अधीन दस्तावेज का निष्पादन या परक्राम्य लिखित का पृष्ठांकन निर्धारित प्ररूप में हो सकेगा।
(6)(क) जहां दस्तावेज का रजिस्ट्रीकरण तत समय प्रवर्त किसी विधि के अधीन अपेक्षित है वहां न्यायालय या न्यायालय का ऐसा अधिकारी जो न्यायालय द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किया जाए, ऐसी विधि के अनुसार दस्तावेज का रजिस्ट्रीकरण कराएगा।
(ख) जहां दस्तावेज का रजिस्ट्रीकरण इस प्रकार अपेक्षित नहीं है किंतु डिग्री दार उसका रजिस्ट्रीकरण कराना चाहता है वहां न्यायालय का आदेश कर सकेगा जो ठीक समझे।
(ग) जहां न्यायालय किसी दस्तावेज के रजिस्ट्री करण के लिए कोई आदेश करता है वहां वह रजिस्ट्रीकरण के व्ययों के बारे में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।
नियम 35-- स्थावर संपत्ति के लिए डिक्री--(1) जहां डिक्री किसी स्थावर संपत्ति के परिदान के लिए हो वहां उसका कब्जा उस पक्षकार को जिसे वह न्याय निर्णित किया गया है या ऐसे व्यक्ति को जो वह संपत्ति को खाली करने से इंकार करता है, हटा करके परिदत्त किया जाएगा।
(2) जहां डिक्री स्थावर संपत्ति के संयुक्त कब्जे के लिए है वहां संपत्ति में के किसी सहज दृश्य स्थान पर वारंट की प्रति को लगाकर और डिक्री के सार को किसी सुविधाजनक स्थान पर ढूंढी पिटवा कर या अन्य रूढिक ढंग से उद्घोषित करके ऐसे कब्जे का प्रदान किया जाएगा।
(3) जहां किसी निर्माण या अहाते के कब्जे का प्रदान किया जाना है और कब्जा रखने वाला व्यक्ति डिक्री द्वारा आबद्ध होते हुए वहां तक अबाध पहुंचना नहीं देता है वहां न्यायालय देश की रूढ़ियों के अनुसार लोगों के सामने ना आने वाली स्त्री को युक्तियुक्त चेतावनी देकर और हट जाने की सुविधा देने के पश्चात अपने अधिकारियों के माध्यम से किसी ताले या चटकनी को हटा सकेगा या खोल सकेगा या किसी द्वार को तोड़कर खो सकेगा या डिक्री दार को कब्जा देने के लिए आवश्यक किसी भी अन्य कार्य को कर सकेगा।
नियम 36-- जब स्थावर संपत्ति अभीधारी के अभियोग में है तब ऐसी संपत्ति के परिदान के लिए डिक्री-- जहां डिक्री डिक्रीसे स्थावर संपत्ति के परिदान के लिए है जो ऐसे अभीधारी या अन्य व्यक्ति के अधिभोग में है जो उस पर अधिभोग रखने का हकदार है और डिग्री द्वारा इस बात के लिए आबद्ध नहीं है कि ऐसा अधिभोग त्याग दें वहां न्यायालय यह आदेश देगा की संपत्ति में के किसी सहज दृश्य स्थान पर वारंट की प्रति को लगाकर और संपत्ति के संबंध में डिक्री के सार को किसी सुविधाजनक स्थान पर डूढी पिटवा कर या अन्य रूढिक ढंग से अधिभोगी को उद्घोषित करके परिदान किया जाए।
किसी न्यायालय द्वारा किसी वाद में डिक्री पारित करने के बाद उस डिक्री का निष्पादन यानी डिग्री की पालना करने संबंधी उपबंध आदेश 21 नियम 30 से 36 में उपबंधित किए गए हैं। तथा यदि न्यायालय की डिक्री को स्थगित करवाने हैं तो उस बाबत आदेश 21 नियम 26 से 29 मैं उपबंधित नियमों के अनुसार ही किसी डिग्री का निष्पादन स्थगित कराया जा सकता है। इस प्रकार सिविल प्रक्रिया संहिता के यह महत्वपूर्ण उपबंध है। विभिन्न न्यायालय द्वारा पारित न्यायिक निर्णय से उपरोक्त उपबंधों को समझने में सहायता मिलेगी।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय--
(1) आदेश 21 नियम 32-- संविदा के विनिर्दिष्ट पालना हेतु डिक्री-- न्यायालय द्वारा विक्रय पत्र निष्पादित किया गया पत्र में केवल नए आराजी नंबर का उल्लेख किया-- पुराने नंबरों का हवाला नहीं-निर्णित ऋणी ने आपत्ति उठाई की रजिस्टर्ड विक्रय पत्र में ऐसा परिवर्तन नहीं किया जा सकता-- आपत्ति खारिज की-- यही प्रश्नगत भूमि डिग्रीधारी को हस्तांतरित की- प्रश्नगत भूमि के पुराने नंबर वन नए नंबर दर्शाते हुए पूरक विक्रय पत्र निष्पादित कर ऐसे गड़बड़ को दूर करने का निर्देश दिया गया।
2010 (2) DNJ (Raj) 588
(2) आदेश 21 नियम 30-- धन के भुगतान के लिए प्रत्येक आज्ञप्ति, किसी अन्य आज्ञप्ति के वेक्लिपक रूप में धन का भुगतान को सम्मिलित करते हुए निम्नलिखित रीतियों से निष्पादित की जा सकती है--
(क)निर्णित ऋणी के व्यवहार कारावास मैं निरोध के द्वारा, या
(ख) उसकी संपत्ति की कुर्की या विक्रय के द्वारा, या
(ग) उपरोक्त दोनों के द्वारा।
1969 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 897
(3) आदेश 21 नियम 32 - - प्रार्थी गण के विरुद्ध स्थाई निषेधाज्ञा हेतु डिक्री - - प्रथम अपील खारिज हुई लेकिन डिक्री इस सीमा तक उपान्तरित की कि प्रश्नगत भूखंड 33 फीट गुणा 38 फुट की बजाय 18 गुना 9 फीट माना जाना चाहिए-- रेस्पोंडेंट नंबर दो संपत्ति के कब्जे में था-- द्वितीय अपील विचाराधीन है-- प्रार्थी को अनुच्छेद 227 के अंतर्गत अधिकारिता का अवलम्ब लेने की बजाए द्वितीय अपील में आवेदन पेस करना चाहिए था-- यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है-- आलोच्य आदेश प्रतिकूल नहीं है एवं याचिका खर्चा सहित खारिज की गई।
2012 (1) DNJ (Raj) 497
(4) संदेय धन की कुर्की के लिए निष्पादन न्यायालय उस दशा में आदेश पारित नहीं कर सकता जब वह उसकी अधिकारिता के बाहर किसी व्यक्ति की अभिरक्षा में हो। अमृतसर का निष्पादन न्यायालय उस धन को कुर्क जाने के लिए आदेश नहीं दे सकता जो दिल्ली स्थित ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के किसी अधिकारी की अभिरक्षा में हो; विशेष रूप से उस समय जबकि धन के अमृतसर में भुगतान किए जाने के संबंध में कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो।
1982 ए आई आर (पंजाब एंड हरियाणा)146
(5) आदेश 21 नियम 32 (5) - निष्पादन न्यायालय ने निर्माण हटाने एवं खाली आधिपत्य सुपुर्द करने का आदेश दिया - -निर्णित ऋणी का कहना कि लाल रंग से अंकित भाग के अलावा अन्य भाग के लिए डिक्री पारित नहीं की है एवं गिराने वाला भाग के आधिपत्य में वह नहीं है-- प्रार्थी निर्णित ऋणी व्यथित पक्षकार नहीं है-- आदेश में अवैधता अथवा अधिकारिता की त्रुटि नहीं है।
1999 (2)DNJ (Raj) 757
(6) जहां धन के संदाय की डिक्री किसी कंपनी के संचालक के विरुद्ध पारित की गई हो वहां धारा 51 परंतुक (ग) के अंतर्गत संचालक को गिरफ्तार किया जा सकेगा।
1983 ए आई आर (कोलकाता) 403
(7) डिक्री की राशि का संदाय नहीं किए जाने पर निर्णित ऋणी को तभी गिरफ्तार एवं विरुद्ध निरुद्ध किया जा सकता है जब आज्ञप्ति धारक यह साबित कर देता है कि--
(1) निर्णित ऋणी के पास डिक्री की राशि का संदाय करने का पर्याप्त साधन उपलब्ध है, लेकिन
(2) वह दुराशय के कारण संदाय नहीं करना चाहता है।
1987 ए आई आर (गुजरात) 160
( 8) 21 नियम 22 व 23 -- जहां पश्चातवर्ती अवस्था में आपत्ति ली जाती है वहां निष्पादन कार्रवाई में पूर्व न्याय का सिद्धांत लागू होगा-- डिक्री के निष्पादन में कुर्की का वारंट जारी किया -निर्णित ऋणी द्वारा निष्पादन के विरुद्ध आपत्ती उठाई गई - - निर्धारित, निष्पादन डिक्री को अग्रसर करने के लिए संपत्ति की कुर्की से पूर्व यह आदेश 21 नियम 20 के तहत एक अवस्था में अंतिम शिखर पर पहुंच जाति है - - कुर्की का वारंट जारी करने के बाद पश्चातवर्ती अवस्था में आपत्ती आंवयिक पूर्व न्याय के सिद्धांत से वर्जित होगी।
2008 (1) DNJ (SC) 151
(9) आदेश 21 नियम 32 (5) - इस नियम के प्रावधान आज्ञात्मक व्यादेश को प्रयोज्य होते हैं, निषेधात्मक व्यादेश को नहीं।
1969 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 92
(10) 21 नियम 35-- इस नियम में प्रयुक्त शब्द " आज्ञप्ति द्वारा बाध्य किसी व्यक्ति" मैं निर्णित ऋणी के साथ-साथ ऐसे व्यक्ति भी सम्मिलित है जिन्हें आज्ञप्ति से बाध्य किया जा सकता है।
2000 ए आई आर ( NOC)( राजस्थान) 15
(11) आदेश 21 नियम 32 - - निषेधाज्ञा की डिक्री का निष्पादन - - डिक्री को प्रभावी बनाने हेतु अंतर्निहित शक्तियों के तहत इस वतन कार्रवाई में समुचित आदेश पारित करने की न्यायालय की शक्ति - - निर्धारित - जब विधि के विनिर्दिष्ट प्रावधानों द्वारा विनिर्दिष्ट रूप से किसी भी प्रकार की शक्तियां नहीं दी गई हो तो न्याय करने हेतु न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के तहत आवेदन प्रस्तुत कर प्रार्थना नहीं की गई हो - - ऐसा व्यक्ति जो केकाबिज नहीं हो, उसे प्रतिषेधात्मक निषेधाज्ञा की डिक्री प्रदान नहीं की जा सकती यहां तक कि स्वयं प्रतिषेधात्मक निषेधाज्ञा का वाद पोषणीय नहीं होगा-- ना केवल दोनों पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है बल्कि पूर्व न्याय है, और ऐसे विवाद्यक पर विचरण करने से न्यायालय को प्रतिषेध करता है।
2009 (2) DNJ ( Raj,)750
(12) डिक्रीधारी ने एक दुकान का कब्जा, जबकि निर्णित ऋणी की पत्नी और उसके बच्चे उस दुकान में वर्तमान मैं थे, स्वीकार कर लिया तथा इस अशय का एक पृष्ठांकन वारंट पर कर दिया। इसे निर्णित ऋणी द्वारा डिग्रीधारी को वास्तविक रूप से कब्जा दे दिया जाना माना गया।
1981 ए आई आर (राजस्थान) 50
(13) आदेश 21 नियम 36 - - जब स्थावर संपत्ति के अभी धारी के अभियोग में है तब ऐसी संपत्ति के परिदान के लिए डिक्री - - अभिनिर्धारित - - बंधक संपत्ति पर काबीज बन्धकदार पट्टा निर्मित करने के सक्षम नहीं था जो बंधक कर्ता पर बाध्यकारी होगा और बंधक के मोचन के पश्चात बंधकदार द्वारा नियुक्त अभी धारी बेदखल का दायीं होगा-- बंधक के मोचन के पश्चात बंधक कर्ता के विरुद्ध बन्धकदार का अभीधारी जो काबीज है वह राजस्थान परिसर (किराया एवं बेदखली नियंत्रण) अधिनियम 1950 के संरक्षण का हकदार नहीं।
2004 ,(3) RLW ( Raj) 1389
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