प्रश्न जिनका अवधारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय करेगा - - धारा 47 सिविल प्रक्रिया संहिता।Question to be determined by the Court executing decree --Section 47 CPC.
सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 47 निम्न प्रकार से उपबंधित की गई है -
धारा 47 - (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होते हैं, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन, या तुष्टि से संबंधित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, ना कि प्रथक वाद द्वारा, अवधारित किया जाएंगे।
(2) विलोपित
(3) जहां यह प्रश्न पैदा होता है कि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का प्रतिनिधि है या नहीं है वहां ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजन के लिए अवधारित किया जाएगा।
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स्पष्टीकरण 1 - वह वादी जिसका वाद खारिज हो चुका है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज हो चुका है किस धारा के प्रयोजनों के लिए वाद के पक्षकार है।
स्पष्टीकरण 2 -
(क) डिक्री के निष्पादन के लिए विक्रय में संपत्ति का क्रेता धारा के प्रयोजनों के लिए उस वाद का पक्षकार समझा जाएगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है; और
(ख) ऐसी संपत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्जा देने से संबंधित या उसके प्रतिनिधि को कब्जा देने से संबंधित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन, या उसकी त्रुष्टि से संबंधित प्रश्न समझे जाएंगे।
इस प्रकार उपर्युक्त प्रश्नों का अवधारणा निष्पादन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। संहिता में किस धारा का मुख्य प्रयोजन अनावश्यक वादों को रोकना है एवं वादों की बहुलता को रोकना है। क्योंकि यदि निष्पादन के समय उठने वाले प्रश्न का अवधारण करने की शक्तियां निष्पादन न्यायालय को नहीं होती तो उसके लिए अलग से वाद संस्थित करना पड़ता है।
संहिता की धारा 47 के अंतर्गत निष्पादन न्यायालय की प्रदत्त शक्तियां एकदम अबाध और निरपेक्ष नहीं है उन पर कुछ सीमाएं आरोपित की गई है अर्थात निष्पादन न्यायालय केवल उन्हीं प्रश्नों का अवधारणा कर सकता है जो आज्ञप्ति मैं विनिर्दिष्ट व्यवस्थाओ को यथा विधि कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक है।
आज्ञप्ति का निष्पादन करने वाला न्यायालय आज्ञप्ति के बाहर नहीं जा सकता। वह आज्ञप्ति से संबंधित उन प्रश्नों का अवधारण नहीं कर सकता कि क्या वह आज्ञप्ति गुण दोषों के आधार पर पारित की गई है या नहीं। वह ऐसे प्रश्नों का अवधारणा नहीं कर सकता है कि –
(1) आज्ञप्ति कपट द्वारा प्राप्त की गई है, अथवा
(2) आज्ञप्ति गलत व्यक्ति के विरुद्ध पारीत की गई।
निम्नलिखित अवस्थाओं में निष्पादन न्यायालय आज्ञप्ति की शुद्धता या वैद्यता के प्रश्न पर विचार करने के लिए उस आज्ञप्ति की पुनः परीक्षा कर सकता है --
(क) जब आज्ञप्ति शून्य प्रभावी हो।
(ख) जब आज्ञप्ति मैं की गई बातों का एक से अधिक अर्थ लगाया जा सकता हो।
(ग) जब आज्ञप्ति किसी ऐसे न्यायालय द्वारा पारित की गई हो जिसे ऐसी आज्ञप्ति पारित करने का क्षेत्राधिकार ही प्राप्त नहीं था।
संहिता की धारा 42 एवं धारा 47 तथा आदेश 21 के नियम 4, 8, व 9 मैं किसी आज्ञप्ति का निष्पादन करने वाले न्यायालय की उन शक्तियों का उल्लेख किया गया है, जिनके के अंतर्गत वह निष्पादन के समय उठने वाले प्रश्नों का निराकरण कर सकता है या अन्यथा आज्ञप्ति का निष्पादन कर सकता है।
इस प्रकार धारा 47 मैं निष्पादन न्यायालय द्वारा अवधारित किए जाने वाले प्रश्न बाबत विवेचन किया गया है। निष्पादन की कार्यवही मैं यह अत्यंत महत्वपूर्ण उपबंध है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय - -
( 1) निष्पादन कार्यवाही में किसी निर्णय को मात्र इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह अधिकारिता के अभाव में पारित किया गया था।
1996 ए आई आर (केरल) 37
(2) निष्पादन करने वाला न्यायालय अपने द्वारा प्रदत्त आदेश में रह गई गलती अथवा भूल को सुधार सकता है। यह न्यायालय का परम कर्तव्य है कि ज्योही कोई गलती उसकी जानकारी में आये अथवा लाई जाए, वह उसे तुरंत सही करेगा।
1981 ए आई आर (कर्नाटक) 234
( 3) निष्पादन करने वाला न्यायालय डिक्री से बाहर नहीं जा सकता अर्थात वह ऐसे प्रश्नों का अवधारण नहीं कर सकता जो उसकी अधिकारिता के बाहर हो। लेकिन यदि निर्णित ऋणी डिक्री की शून्यता के आधार पर डिक्री प्रतिरोध करता है और निष्पादन करने वाला न्यायालय डिक्री की शून्यता से संतुष्ट हो जाता है तो वह उसके निष्पादन को रोक सकता है। इसके बारे में यह नहीं कहां जा सकता है कि निष्पादन करने वाला न्यायालय डिक्री से बाहर गया है, इसका कारण है कि शून्य डिक्री वस्तुतः डिक्री होती ही नहीं है।
1981 ए आई आर (मद्रास) 354
( 4) धारा 47 - - डिक्री के निष्पादन में उसकी व्याप्ति - - डिक्री में समाहित है उसी के अनुरूप उसे निष्पादित करना चाहिए-- डिक्री के तथ्यों के परे न्यायालय नहीं जाएगा-- डिक्री का निष्पादन बिना वर्द्धि अथवा घटाए होना चाहिए।
1997 (2) DNJ (Raj.)735
(5) धारा 47 - - डिक्री का निष्पादन करते वक्त न्यायालय द्वारा अवधारित किए जाने वाले - - द्वितीय अभ्यापति याचिका-- आक्षेपकर्ता / निर्णित ऋणी ने इस आड़ में दायर की कि उसने वर्तमान याचिका मैं जो आधार उठाए हैं उन्हें उस ने पूर्व में नहीं उठाया था अभीनिर्धारित-- यह प्रतिकार विधि के प्रतिकूल है-- डिक्री के निष्पादनयत्ता के विरुद्ध उसी के निष्पादन कार्रवाई में उसे एक के बाद दूसरा आवेदन पेश करने का कोई अधिकार नहीं था - - आपत्ती याचिका का विनिश्चय जांच करने के उपरांत ही किया जा सकता है कि बशर्ते की कोई व्यक्ति साक्ष्य पेश करने के लिए अवसर प्रदान करने की प्रार्थना करता हो - - ऐसी कोई प्रार्थना नहीं की गई है - - न्यायालय का यह विवेकाधिकार है - - द्वितीय याचिका पोषणीय नहीं -- पूर्ववर्ती आदेश अंतिम है।
2007 (3) RLW 2508
(6) धारा 47 - - निष्पादन न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाने वाला प्रश्न - - वर्तमान मामले में निष्पादन न्यायालय अपने आदेश को पत्रावली पर आई सामग्री पर आधारित नहीं किया है - - विवादग्रस्त भूमि के नक्शे को विचार में नहीं लिया गया है और इस प्रकार न्यायालय ने आदेश दे दिया है - - ऐसे आदेश को पारित करने की अधिकारिता न्यायालय को नहीं थी - - अभी निर्धारित, आक्षेपित आदेश तो अनुमान और कल्पना के आधार पर किया गया है-- पत्रावली पर आइ साक्ष्य का विवेचन प्रस्तुत किए नक्शे के संदर्भ में नहीं हुआ है।
1996 (2) DNJ ( Raj)609
(7) धारा 47 व आदेश 21 नियम 2 व 3-- डिग्रीधारी को न्यायालय के बाहर भुगतान किया-- न्यायालय के बाहर समायोजन या भुगतान, जो की आदेश 21 नियम 2 के तहत न्यायालय द्वारा प्रमाणित नहीं है, निष्पादन न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होगा-- अभिनिर्धारित-- आदेश 21 नियम 2 मैं अंतर्विष्ट विशेष प्रावधानों की बजाए धारा 47 के तहत सामान्य प्रावधान लागू होंगे।
2006 (3) RLW 2474 (SC)
(8) धारा 47 सपठित धारा 151-- डिक्री के निष्पादन में आपत्ति उठाई की डिक्रीशून्य थी और राजस्थान कृषि ऋण ग्रसता राहत अधिनियम की धारा 11 के आज्ञापक प्रावधान की अपालना के कारण अनिष्पादन योग्य है-- किस्तों द्वारा भुगतान डिक्री में प्रदान किया गया- उच्चतर न्यायालय के समक्ष डिक्री को चुनौती नहीं दी-- धारा 10 और 11 की अपालना का मामला नहीं, आपत्ति स्वीकार करने योग्य नहीं।
2015 (4) DNJ (Raj)1690
(9) धारा 47 - - वसीयत के आधार पर मृतक डिक्री धारक के उत्तराधिकारी द्वारा निष्पादन याचिका - - प्रार्थी ने आपत्ती उठाई की उत्तराधिकारी वसीयत के प्रमाण पत्र के बिना डिक्री निष्पादित करने का प्राधिकारी नहीं है-- राजस्थान राज्य में वसीयत के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है-- निष्पादन न्यायालय ने आपत्ती सही खारिज की है।
2002 (1) DNJ (Raj) 83
(10) धारा 47 सपथित आदेश 21 नियम 99 -- डिक्री के निष्पादन पर आक्षेप-- प्रत्यर्थी संख्या 1 से 3 के पक्ष में तथा प्रत्यर्थी संख्या 4 के विरुद्ध डिक्री पारित हुई जिसका निष्पादन चाहा गया-- प्रार्थी ने यह कहते हुए आक्षेप याचिका दायर की की डिक्री प्रत्यर्थी संख्या 1 से 3 तथा प्रत्यर्थी संख्या 4 आक्षेपकर्ता जो कि वादग्रस्त परिसर का किराएदार है, के मध्य दुरभिसंधि पूर्ण है-- निचली अदालतों ने प्रार्थी के आक्षेप को अस्वीकार कर दिया-- इस बात का कोई साक्ष्य नहीं कि वह वादग्रस्त परिसर का वास्तविक किराएदार है जिससे कि उसके अंतिम डिक्री के निष्पादन पर लगाए गए आक्षेप उचित ठहराया जा सके--निर्णित, निचली अदालत द्वारा प्रार्थी द्वारा लगाए गए आक्षेपो को खारिज किया जाना सही था।
2002 (2) DNJ (Raj.)499
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