PLACE OF SUING -SECTION 15 TO 21 CPC.(वाद संस्थित करने का स्थान -- धारा 15 से 21 सीपीसी) - CIVIL LAW

Monday, April 30, 2018

PLACE OF SUING -SECTION 15 TO 21 CPC.(वाद संस्थित करने का स्थान -- धारा 15 से 21 सीपीसी)

वाद संस्थित करने का स्थान -- धारा 15 से 21 सीपीसी
PLACE OF SUING -SECTION 15 TO 21 CPC.

     सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 से 21 मैं वाद किस न्यायालय में प्रस्तुत किए जाएंगे इस बाबत उपबंध किए गए हैं जिसका उद्देश्य किसी एक न्यायालय में वादों की भरमार ना हो जाए, अतः न्यायालय को विभिन्न श्रेणियों में विभक्त किया गया है और प्रत्येक न्यायालय का क्षेत्राधिकार निश्चित कर दिया गया है। कोई भी न्यायालय तो अपने क्षेत्राधिकार के बाहर  कार्य कर सकता है और ना ही एक दूसरे के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप कर सकते हैं। इस व्यवस्था को निश्चित करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 से 21 तक मैं वाद संस्थित किए जाने के स्थान के बारे में प्रावधान किया गया है। जो इस प्रकार है--



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धारा 15 -- वह न्यायालय जिसमें वाद संस्थित किया जाए -
 हर वाद उस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जाएगा जो उसका विचारण  करने के लिए सक्षम है।

धारा 16-- वादों का वहाँ संस्थित किया जाना जहां विषय वस्तु स्थित है -
 किसी विधि द्वारा विहित धन- संबंधी या अन्य परिसीमा के अधीन रहते हुए, वे वाद जो--
(क) भाटक या लाभो के सहित या रहित स्थावर संपत्ति के प्रत्युदहरण के लिए,
(ख) स्थावर संपत्ति के विभाजन के लिए,
(ग) स्थावर संपत्ति के बंधक की या उस पर के भार की दशा में पुरोबन्ध  विक्रय या मोचन के लिए,
(घ) स्थावर संपत्ति में के किसी अन्य अधिकार या हित के अवधारण के लिए,
(ड़) स्थावर संपत्ति के प्रति किए गए दोष  के लिए प्रतिकर के लिए,
(च) करस्थम्ब या कुर्की के वस्तुतः अध्ययन जंगम संपत्ति के प्रतियूदहरण के लिए,
है, उस न्यायालय में संस्थित किए जाएंगे जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं  के भीतर वह संपत्ति स्थित है ;
परंतु प्रतिवादी के द्वारा या निमित धारित स्थावर संपत्ति के संबंध में अनुतोष उसके स्वीय आज्ञानुवर्तन के द्वारा किए गए दोष  के लिए प्रतिकार की अभीप्राप्ति के लिए वाद, जहां चाहा गया अनुतोष उसके श्री स्वीय अनुवर्तन के द्वारा पूर्ण रूप से अभीप्राप्त किया जा सकता है, उस न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर संपत्ति स्थित है या उस न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रतिवादी वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता या कारोबार करता है या अभीलाभ के लिए स्वयं काम करता है संस्थित किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा में "!संपत्ति" से भारत में स्थित संपत्ति अभिप्रेत है




धारा 17 - विभिन्न न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्थावर संपत्ति के लिए वाद - जहां बाद विभिन्न न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्थावर संपत्ति के संबंध में अनुतोष की या ऐसी संपत्ति के प्रति किए गए दोष  के लिए प्रतिकर कि अभीप्राप्ति के लिए है वहां वह वाद किसी भी ऐसे न्यायालय में संस्थित किया जा सकेगा जिसकी अधिकारिता के स्थानीय सीमाओं के भीतर संपत्ति का कोई भाग स्थित है:
परंतु यह तब जबकि पूरा दावा उस वाद के विषय वस्तु के मूल्य की दृष्टि से ऐसे न्यायालय द्वारा सन्घेय है।
धारा 18-- जहां न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाएं अनिश्चित है वहां वाद के संस्थितकिए जाने का स्थान -(1) जहां यह  अभिकथन किया जाता है कि यह अनिश्चित है कि कोई स्थावर संपत्ति दो या अधिक न्यायालयों में से किस न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है वहां उन न्यायालयों में से कोई भी एक न्यायालय, यदि उसका समाधान हो जाता है कि अभीकथित अनिश्चितता के लिए आधार है, उस भाव का कथन अभिलिखित कर सकेगा और तब उस संपत्ति से संबंधित किसी भी वाद को ग्रहण करने और उसका निपटारा करने के लिए आगे की कार्रवाई कर सकेगा, और उस बाद में उसकी डिक्री का वही प्रभाव होगा मानो वह संपत्ति उसकी अधिकारीता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है;
परंतु यह तब जबकी वह वादा ऐसा है जिसके संबंध में न्यायालय उस वाद की प्रकृति और मूल्य की दृष्टि से अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए सक्षम है।
(2) जहां कथन उपधारा 1 के अधीन अभिलिखित नहीं किया गया है और किसी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय के सामने यह आक्षेप किया जाता है ऐसी संपत्ति से संबंधित वाद में डिक्री या आदेश ऐसे न्यायालय द्वारा किया गया था जिसकी वहां अधिकारिता नहीं थी जहां संपत्ति स्थित है वहां अपील या पुनरीक्षण न्यायालय उस आक्षेप को तब तक अनु ज्ञान नहीं करेगा जब तक कि उसकी राय न की वाद के संस्थित किए जाने के समय उसके संबंध में अधिकारिता रखने वाले न्यायालय के बारे में अनिश्चितता के लिए कोई युक्तियुक्त आधार नहीं था उसके परिणाम स्वरुप न्याय में निष्फलता हुई है।
धारा 19 - शरीर या जंगम संपत्ति के प्रति किए गए दोषो के लिए प्रति कर के लिए वाद  - शरीर या जंगम संपत्ति के प्रति किए गए दोष के लिए प्रतिकर के लिए है वहां यदि दोष एक न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किया गया था और प्रतिवादी किसी अन्य न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर निवास करता है या कारोबार करता है या अभीलाभ के लिए स्वयं काम करता है तो वाद वादी के विकल्प पर उक्त न्यायालय में से किसी भी न्यायालय में संस्थित किया जा सकेगा।
धारा 20 - अन्य वाद वहां संस्थित  किए जा सकेंगे जहां प्रतिवादी निवास करते हैं या वाद हेतुक पैदा होता है - पूर्वोक्त परिसीमाओ के अधीन रहते हुए, हर वाद ऐसे न्यायालय में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारीता कि स्थानीय सीमाओं के भीतर --
(क) प्रतिवादी या जहां एक से अधिक प्रतिवादी है वहां प्रतिवादियों में से हर एक वाद के प्रारंभ के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारोबार करता है या अभीलाभ के लिए स्वयं काम करता है अथवा;
(,ख) जहां एक से अधिक प्रतिवादी है वहां प्रतिवादियों में से कोई भी प्रतिवादी वाद के प्रारंभ के समय वास्तव में स्वेच्छा से निवास करता है या कारोबार करता है या अभीलाभ के लिए स्वयं काम करता है, परंतु यह तब जबकि ऐसी अवस्था  में या तो न्यायालय की इजाजत दे दी गई है या जो प्रतिवादी पूर्वोक्त रूप से निवास नहीं करते या कारबार नहीं करते या अभीलाभ के लिए स्वयं काम नहीं करते वह ऐसे संस्थित किए जाने के लिए उपगत हो गए हैं; अथवा
(ग) वाद हेतुक पूर्णत या भागत पैदा होता है।
स्पष्टीकरण-- निगम के बारे में यह समझा जायेगा कि वह भारत में के अपने एकमात्र प्रधान कार्यालय में या किसी ऐसे वाद हेतुक की बाबत जो ऐसे किसी स्थान में पैदा हुआ है जहां उसका अधीनस्थ कार्यालय भी है ऐसे स्थान में कारोबार करता है।



धारा 21 अधिकारिता के बारे में आक्षेप - (1) वाद लाने के स्थान के संबंध में कोई भी आक्षेप किसी भी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा तब तक अनुज्ञात नहीं किया जाएगा जब तक कि ऐसा आक्षेप प्रथम बार के न्यायालय में यथासंभव सर्वप्रथम अवसर पर और उन सभी मामलों में जिनमें विवाद्यक स्थिर किए जाते हैं, ऐसे स्थिरकरण के समय या उसके पहले ना किया गया हो और जब तक की उसके परिणाम स्वरुप न्याय की निष्फलता ना हुई हो।
( 2) किसी न्यायालय की अधिकारिता की धन संबंधी परिसीमा के आधार पर उसकी सक्षमता के बारे में कोई आक्षेप किसी अपील या पुनिरीक्षण न्यायालय द्वारा तब तक अनुज्ञात नहीं  किया जाएगा जब तक की ऐसा आक्षेप  प्रथम बार के न्यायालय में यथा संभव सर्वप्रथम अवसर पर और उन सभी मामलों में, जिनमें विवाद्यक स्थिर किये जाते हैं ऐसे स्तरीकरण के समय या उसके पहले ना किया गया हो और जब तक कि उसके परिणाम स्वरुप न्याय की निष्फलता ना हुई हो।
(3) किसी निष्पादन न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओ  के आधार पर उसकी सक्षमता के बारे में कोई आक्षेप अपील या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा तब तक अनुज्ञात नहीं किया जाएगा जब तक कि ऐसा आक्षेप निष्पादन न्यायालय में यथासंभव सर्वप्रथम अवसर पर ना किया गया हो और जब तक कि उसके परिणाम स्वरुप न्याय की निष्फलता न हुई हो।
धारा 21( क)-- वाद लाने के स्थान के बारे में आक्षेप पर डिक्री को अपास्त करने के लिए वाद का वर्जन - उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हें पक्षकारों के बीच या ऐसे पक्षकारों के बीच जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे  या उनमें से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्ववर्ती वाद में पारित डिक्री की विधिमान्यता को वाद  लाने के स्थान के बारे में किसी आक्षेप के  आधार पर प्रश्न गत करने वाला कोई वाद नहीं लाया जाएगा
स्पष्टीकरण - - “पूर्ववर्ती वाद” पद से वह बाद अभिप्रेत है जो उस वाद के विनिश्चय के पहले  विनिश्चित हो चुका है जिसमें डिक्री की विधि मान्यता का प्रश्न उठाया गया है, चाहे पूर्वतन विनिश्चित वाद उस वाद से पहले संस्थित किया गया हो या बाद में जिसमें  में डिक्री  की विधि- मान्यता का प्रश्न उठाया गया है।
संहिता में धारा 15 से 20 में उन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनमें कोई वाद संस्थित  किया जाना चाहिए। धारा 15 के अनुसार प्रत्येक वाद, उसके विचारण के लिए सक्षम सबसे निम्न श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जाना चाहिए। इस धरा का मुख्य उद्देश्य उच्चतर श्रेणी के न्यायालय में वादों की भीड़ अथवा भरमारको रोकना है। 

विभिन्न न्यायालयों द्वारा मत व्यक्त किया गया है जो इस प्रकार है--

(1) यह केवल एक प्रक्रिया का नियम है, क्षेत्राधिकार का नहीं।
1970 एम. पी.एल.जे. 622




(2) यदि कम मूल्य के किसी वाद का विचारण उच्चतर श्रेणी के किसी न्यायालय द्वारा किया गया है तो यह केवल एक अनियमितता है और यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करता।
1970 ए. एल. जे. 272

(3) धारा 15 एवं 151 - न्यायालय की अधिकारिता -  निष्पादन एक किराए की वाक्यात की वसूली के लिए वाद - - अधिकारिता अपसरित करने के लिए वादी ने स्थाई निषेधाज्ञा कि  सहांयता जोड़ी एवं वाद को बढ़ा-चढ़ाकर किया-- उचित न्यायालय में पेश करने के लिए वाद पत्र लौटाने की प्रार्थना-- विचारण न्यायालय ने आवेदन रद्द किया-- पुनरीक्षण-- प्रतिवाद पत्र पेश नहीं किया-- भूस्वामी एवं किराएदार के संबंधों को अस्वीकार किया-- निचली श्रेणी के न्यायालय में वाद को संस्थित करने प्रक्रिया का नियम है ना की अधिकारिता का-- यह केवल अनियमित है एवं अधिकारिता की त्रुटि नहीं है,- स्थाई निषेधाज्ञा की सहायता अनुषंगी नहीं है- न्यायालय की अधिकारिता वाद पत्र में किए गए अभिकथनो  से अवधारित होती है-- अभिनिर्धारित, विचारण न्यायालय ने तात्विक अनियमितता या विधि अथवा अधिकारिता की सारवान त्रुटि कारित नहीं की है।
1977 (1) DNJ (Raj.) 166

(4) राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभिनिर्धारित किया है कि न्यायालय के क्षेत्राधिकार के प्रयोजन के लिए वाद के मूल्य का अवधारण वाद पत्र में किए गए मूल्यांकन के आधार पर किया जाना चाहिए।
1969 ए आई आर( राजस्थान) 304
(5) न्यायालय ऐसे किसी अचल संपत्ति के संबंध में कोई अनुतोष प्रदान नहीं कर सकता जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार मैं वह चल संपत्ति अवस्थित नहीं हो।
ए आई आर 1969 गुजरात 308

(6) धारा 20-- क्षेत्रीय अधिकारीता का आक्षेप किया-- पहले 3 शर्तो की अनुपालना होनी चाहिए -(1)आक्षेप सर्वप्रथम वाले न्यायालय में उठाना चाहिए, (2) आक्षेप प्रथम अवसर मिलते ही उठना चाहिए और (3) फलस्वरुप न्याय में हानि हुई हो-- आक्षेप का अभित्यजन नहीं किया गया हो-- इसके अतिरिक्त सभी शर्तें हैं एक साथ स्थित होनी चाहिए-- प्रस्तुत मामले में प्रतिवादी 4 वर्ष तक पैरोकारी करता रहा अब उठाया गया आक्षेप बाद की सुझ है-- प्रतिवादी की उपेक्षा और अपचार के कारण कितना दाम लिए प्रेषण दे दीया गया-- संविदा अधिनियम की धारा 194 मालिक और एजेंट के संबंध में स्पष्ट करती है-- प्रतिवादी ने सद्भावीक रूप से बुद्धिमान व्यक्ति की भांति व्यवहार नहीं किया है और नुकसान दायित्व उस पर है, अभिनिर्धारित, अपील अस्वीकार की गई, और ₹2000 व्यय के दिलाएं ।

(7) एक मामले में दिल्ली, जालंधर, तथा जम्मू कश्मीर मैं अवस्थित संपतिया  के विभाजन एवं लेखों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में वाद संस्थित किया गया। यह अभीनिर्धारित किया गया कि दिल्ली उच्च न्यायालय को जम्मू कश्मीर राज्य में अवस्थित संपत्ति के संबंध में वाद सुनने एवं विनिश्चय करने की प्रादेशिक अधिकारिता थी।
1981 ए आई आर ,( दिल्ली) 262




(8) राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि धारा 19 केवल व्यक्ति अथवा चल संपत्ति के प्रति वाद योग्य अपकरो पर ही प्रयोज्य होती है। यह ऐसे मामलों में प्रयोजय नहीं होती है जहां वादों को आपराधिक परिवाद के संस्थित किए जाने के परिणाम स्वरुप गिरफ्तार नहीं किया गया हो।
ए आई आर 1972 राजस्थान 142

(9) धारा 16 (घ) सपथित आदेश 6 नियम 17- घोषणा, करार की विनिर्दिष्ट अनुपालना और संपत्ति के कब्जे के लिए वाद दायर किया-- न्यायालय की अधिकारिता-- लिखित कथन दायर करने के 8 से भी अधिक वर्ष पश्चात यह आपत्ती उठाते हुए लिखित कथन में संशोधन दायर किया कि क्या वाद स्वीकार करने की न्यायालय की अधिकारिता प्राप्त है? संपत्ति के विरुद्ध कार्यवाही उस मंच में की जानी चाहिए जहां पर स्थित है, न्यायालय जिसकी प्रादेशिक अधिकारिता में संपत्ति स्थित नहीं है, उसे अधिकारिता प्राप्त नहीं-- समुचित न्यायालय के समक्ष पेश करने हेतु वादी को वाद पत्र लौटाने का आदेश पारित करने में विचारण न्यायालय सही था।
2005 ,(4) RLW  (SC) 2459

(10) धारा 21 - - न्यायालय की अधिकारिता - - क्षेत्रीय, आर्थिक अधिकारिता विहीन न्यायालय एवं विषय वस्तु पर बिना अधिकारिता के न्यायालय में अंतर - - बिना अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा आदेश पारित किया गया - - वाद की विषय वस्तु के संबंध में बिना अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा पारित डिक्री में अपीलीय न्यायालय हस्तक्षेप करेगा।
2007 (2) RLW  872 (SC)

(11) माल केअपरिदान के प्रति कर हैतू वाद के विरुद्ध वाद उच्च न्यायालय में इस आधार पर पेश किया गया कि उस  न्यायालय के क्षेत्राधिकार में प्रतिवादी रेलवे का प्रधान कार्यालय स्थित था जबकि वाद कारण वहां उत्पन्न नहीं हुआ था। यह भी निर्धारित किया गया कि वाद चलने योग्य था
ए आई आर 1981 कोलकाता 223

(12) एक मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पुरस्कार ऐसे किसी न्यायालय में वाद संस्थित करने का अनुबंध नहीं कर सकते हैं जिसे किसी भी तरह से वाद की सुनवाई करने की अधिकारिता ही नहीं हो। वे कई न्यायालयों में से किसी एक न्यायालय में वाद संस्थित करने का विकल्प तभी चुन सकता है जब उन न्यायालय में से कम से कम एक न्यायालय को वाद की सुनवाई की अधिकारिता हो।
ए आई आर 1987 कोलकाता 165

(13) उच्चतम न्यायालय द्वारा यहअभीनिर्धारित किया गया है कि जहां मृतक कर्मचारी ने राजकीय सेवा किसी राज्य विशेष में की हो तो पेंशन के लिए वह वाद भी उसी राज्य के सक्षम न्यायालय में संस्थित किया जा सकता है, किसी अन्य राज्य के न्यायालय में नहीं, क्योंकि वहां ना तो पूर्णत वाद  हेतु उत्पन्न  होता है और न ही अंशतः वाद र्हैतू ही उत्पन्न होता है।
ए आई आर 1996 सुप्रीम कोर्ट 937




(14) न्यायालय की अधिकारिता-- विचारण न्यायालय में आपत्ति नहीं उठाई गई- डिक्री की विधि मान्यता-- विवाद के अधीनिर्णयन को सिविल जज प्राधिकृत नहीं था- क्या आपत्ती अपील में उठाई जा सकती है? अभिनिर्धारित, हां, आपत्ती निष्पादन कार्रवाई में भी उठाई जा सकती है।
1997 (2) DNJ  (Raj.) 527




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