Injunction against wrongful ejectment दोषपूर्ण बेदखली के विरुद्ध व्यादेश धारा 188 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम-- - CIVIL LAW

Saturday, April 28, 2018

Injunction against wrongful ejectment दोषपूर्ण बेदखली के विरुद्ध व्यादेश धारा 188 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम--

दोषपूर्ण बेदखली के विरुद्ध व्यादेश - धारा 188 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम--
Injunction against wrongful ejectment-Section 188 R.T. Act.

              राजस्थान काश्तकारी अधिनियम 1955 के अनुसार खातेदार को अपनी संपूर्ण जोत या उसके किसी भाग पर के अधिकार या उसके उपयोग पर उसके भूधारक अथवा अन्य किसी द्वारा अतिचार किया गया हो या अतिचार करने का भय हो, उसके विरुद्ध स्थाई व्यादेश के लिए वाद ला सकता है। राजस्थान काश्तकारी अधिनियम के अंतर्गत धारा 188 उपबंधित की गई है --

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धारा 188 - दोष पूर्ण  बेदखली के विरुद्ध व्यादेश -
(1) कोई अभीधारी, जिसकी संपूर्ण जोत या उसके किसी भाग पर के अधिकार या उसके उपयोग पर उसके भूधारक अथवा अन्य किसी द्वारा अतिचार किया गया हो या अतिचार किया जाने का भय हो, शाश्वत व्यादेश के लिए वाद ला सकेगा।
,(2) न्यायालय, आवश्यक जांच करने के पश्चात निम्नलिखित मामलों में स्थाई व्यादेश दे सकेगा, अर्थात --
(क) यदि अतिक्रमण द्वारा कारित या संभाव्य वास्तविक नुकसान को अभीनिश्चित करने के लिए कोई मानक विद्यमान ना हो;
(ख़) यदि अतिक्रमण ऐसा हो की धनिय मुआवजे से पर्याप्त अनुतोष न मिल सके;
(ग) जब यह अधिसंभाव्य हो की अतिक्रमण के लिए धनिय मुआवजा प्राप्त नहीं किया जा सकता;
(घ) जहां कार्यवाहियों को रोकने के लिए व्यादेश आवश्यक हो।




  इस अधिनियम में व्यादेश संबंधित निम्नलिखित उपबंध है --

(1) अस्थाई व्यादेश -- धारा 212 सपथित आदेश 39 नियम 1 -2 सीपीसी
(2) दोषपूर्ण बेदखली के विरुद्ध स्थाई व्यादेश के लिए वाद - धारा 188
(3) व्यादेश के लिए वाद -- धारा 92 (क), अवशिष्ट उपबंध है और विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 36 पर आधारित है।

उपधारा (2 ) में 4 आधारोंका उल्लेख किया गया है, जिनमें स्थाई व्यादेश का आदेश न्यायालय द्वारा आवश्यक जांच के बाद किया जा सकता है।
(1) यदि अतिक्रमण के कारण हुए या हो सकने वाले नुकसान को तय  करने का कोई मानक  ना हो अर्थात - यह पता लगाना संभव नहीं की इस अतिचार से वास्तव में कितना नुकसान हुआ है यह हो सकता है।
(2) यदि धन के मुआवजे से क्षति पूर्ति नहीं मिल सकती हो।
(3) यदि ऐसा धन मुआवजा प्राप्त नहीं किया जा सकता हो,
(4) जहां कार्यवाहीयो की बहुलता रोकने के लिए व्यादेश धन आवश्यक हो।
स्पष्ट है कि उपरोक्त आधारों मैं किसी एक आधार पर स्थाई निषेधाज्ञा का आदेश प्राप्त किया जा सकता है और धारा 212 के अधीन अस्थाई निषेधाज्ञा का आदेश धारा 188 या धारा 92 (क) का वाद प्रस्तुत कर प्राप्त किया जा सकता है।




अस्थाई और स्थाई निषेधाज्ञा मैं अंतर --

" धारा 212 के अधीन अस्थाई निषेधाज्ञा का उपचार  प्रदान किया जाता है, जिसका  एकमात्र उद्देश्य विवादग्रस्त संपत्ति को उसकी विद्यमान दशा के प्रश्न का निर्णय किए बिना सुरक्षा करना है, आगे किसी दोष या ऐसा कार्य करने से रोकना है जिसके द्वारा विवादग्रस्त अधिकार को तात्विक रूप से नष्ट या भयग्रस्त किया जा सकता हो। एक अस्थाई व्यादेश स्थाई व्यादेश से इस अर्थ में भिन्न है कि यह गुण गुण पर सुनवाई से प्रार्थमिक कार्रवाई है और किसी भी साधन से ऐसी सुनवाई पर निर्भर नहीं है। एक स्थाई व्यादेश गुण गुण पर अंतिम सुनवाई के बाद ही दिया जा सकेगा। धारा 151 प्रक्रिया संहिता के अधीन न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय अस्थाई व्यादेश जारी कर सकता है हालांकि उस मामले में धारा 212 लागू नहीं होती हो। धारा 188 के अध्ययन से स्पष्ट है कि धारा 188 के अंतर्गत वाद में स्थाई व्यादेश देने के पूर्व निम्न शर्तें साबित करनी आवश्यक है --
(1) वादी विवादग्रस्त जोत का अभीधारी है जैसा की धारा 5 (43) में परिभाषित किया गया है।
(2) वाद प्रस्तुत करने की तारीख को वादी उस वाद भूमि के कब्जे में है, और
(3) वादी का उस जोत में के अधिकार या उपयोग पर प्रतिवादी द्वारा अतिचार किया गया है यह विचार करने का भय है।




            उपरोक्त सभी वादी को स्थाई व्यादेश प्राप्त करने के लिए साबित करने आवश्यक है यदि इनमें से एक भी की चूक होती है तो न्यायालय स्थाई व्यादेश का आदेश प्रदान नहीं करेगा। धारा 5 (43) के अधीन शब्द अभीधारी मैं उप अभीधारी और सह अभीधारी भी आते हैं परंतु इजहारेदार या ठेकेदार या अतिचारी इसमें नहीं आते हैं।

इस धारा के अंतर्गत एक  खातेदार को ही स्थाई व्यादेश का वाद प्रस्तुत करने का अधिकार है खातेदार के अलावा व्यक्ति जो वादग्रस्त भूमि पर काबीज है तथा उसे यदि इस धारा के अंतर्गत स्थाई व्यादेश प्राप्त करना है तो उसे घोषणा का वाद भी लाना होगा घोषणा के वाद के अभाव में मात्र स्थाई निषेधाज्ञा का पोषणीय नहीं है।
एक अभिलिखित खातेदार के विरुद्ध अस्थाई व्यादेश एक इकरारनामे के आधार पर जाहिर नहीं किया जा सकता, जब तक कि वाद पेश करने की तारीख को यह विवादग्रस्त भूमि पर प्रथम दृष्टया उसका कब्जा साबित नहीं कर दिया जाए। वाद पेश करने के दिन यदि वादी का वादग्रस्त भूमि पर कब्जा नहीं है तो उसे स्थाई निषेधाज्ञा का वाद प्रस्तुत ना कर धारा 183 के अंतर्गत कब्जे का वाद प्रस्तुत करना चाहिए। बिना कब्जे की मांग किए हक घोषणा की राहत नहीं दी जा सकती है। यदि प्रतिवादी कब्जे में है तो प्रतिवादी को यह साबित करना होगा कि वह किस प्रकार से वादग्रस्त भूमि के कब्जे में आया।

केवल व्यादेश के मामले में वादग्रस्त भूमि में वाद प्रस्तुत करने के रोज कब्जा होना अनिवार्य है। यदि वाद घोषणा के लिए नहीं है, परंतु केवल व्यादेश के लिए वाद प्रस्तुत किया गया है। ऐसे वाद में सफल होने के लिए वादी को यह प्रदर्शित करना होगा वाद फाइल करने की तारीख को वाद भूमि पर वादी का कब्जा था। यह सुविदित है कि जो व्यक्ति कब्जे में नहीं है, वह स्थाई व्यादेश के लिए वाद फाइल नहीं कर सकता है। इस धारा के अधीन वाद में वादी को यह दर्शित करना होगा कि वह वाद पेश करने के रोज वाद भूमि पर उसका वास्तविक और भौतिक कब्जा है। केवल इसी बात की अपेक्षा की जाती है वादी खातेदार का कब्जा है  और यदि  कब्जे से व्यक्ति द्वारा उसे बेदखल किया जा रहा है बेदखल करने के लिए धमकी दी जा रही है, तो न्यायालय द्वारा संरक्षण किया जा सकता है। कोई व्यक्ति लगातार कब्जे के आधार पर वाद प्रस्तुत करता है परंतु मौखिक एवं दस्तावेज साक्ष्य के आधार पर कब्जे में नहीं था। खातेदारी अधिकार घोषित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार इस धारा के अधीन केवल एक अभीधारी ही स्थाई व्यादेश के लिए वाद फाइल कर सकता है, अन्य कोई नहीं।




सह अभीधारियों द्वारा और उनके विरुद्ध व्यादेश-- सामान्य सिद्धांत यह है कि एक सह अभीधारी का संयुक्त जोत के प्रत्येक इंच पर कब्जा माना जाता है और उसके विरुद्ध कोई व्यादेश जारी नहीं किया जा सकता है। सह अभीधारियों के मामले में, एक व्यथित सह  खातेदार को विभाजन का एक सर्वश्रेष्ठ उपचार उपलब्ध है। व्यादेश की मांग का उपचार केवल तभी उपलब्ध है, जब व्यथित सह  खातेदार को उसके जोत में बाहर कर दिया गया हो, या उस जोत पर उसका अधिकार मानने से मना कर दिया हो, तो उसे संयुक्त जोत के उपयोग या आधिपत्य से रोक दिया गया हो तब वह स्थाई व्यादेश प्राप्त कर सकता है। यह स्थापित सिद्धांत है कि यदि एक सह खातेदार संयुक्त जोत का दुरुपयोग करता है तथा अन्य सह खातेदारोंके अधिकार का उल्लंघन करता है, तो दूसरा खातेदार अवसर के अनुसार निम्न में से कोई यह उपचार प्राप्त कर सकता है --
(1) जोत का विभाजन
(2) अधिकारों की घोषणा तथा क्षतिपूर्ति
(3) संयुक्त कब्जे की डिक्री
(4) व्यादेश

एक सह खातेदार अपने अधिकारों का उपभोग प्राप्त करने के लिए दूसरे सह खातेदार के विरुद्ध वाद पेश कर सकता है।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय ---

(1) वादी को छूट दी गई कि अपना वाद किसी भी प्रतिवादी के विरुद्ध जारी रखें। प्रतिवादीगण वादी को उन लोगों के विरुद्ध जारी रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं , जिनके विरुद्ध वादी आगे कार्रवाई नहीं करना चाहता है।
1982 आर आर डी 33

(2) स्थाई व्यादेश के लिए वाद में धारा 209 के प्रभाव से धारा 183 के अधीन अनुतोष दिया जा सकता है, जैसा 1978 आर आर डी 217 मैं अभी निर्धारित किया गया है। 1963 आर आर डी 250 राजस्थान उच्च न्यायालय के अनुसार उचित अनुतोष दिया जा सकता है। अतः उपखंड अधिकारी प्रतिवादियों को धारा 5 (44) मैं दी गई अतिचारी की परिभाषा को ध्यान में रखते हुए धारा 183 के अधीन बेदखल कर सकता है।

(3) एक वाद में मुख्य अनुतोष घोषणा का था, जो डिक्री नहीं किया जा सका, तो स्थाई व्यादेश भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वाद पत्र में इसका दावा नहीं किया गया था।
1981 आर आर डी 714




(4) धारा 88 या 181 या 212 या आदेश 39 नियम 1 -2 सीपीसी को किसी सुखाचार संबंधी अधिकार की रक्षा के लिए लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा कुआं धारा 5( 17) के अर्थ में यह एक जोत नहीं है।
1982 आर आर डी 135

(5) धारा 188 के अधीन व्यादेश के लिए वाद फाइल किया, मोटर पंप के द्वारा कुवे से पानी लेने के लिए अनुतोष मांगा गया। वादी ने संयुक्त कुएं मे मैं से पंप से पानी लेने का कथन किया। अतः उपखंड अधिकारी ने अस्थाई व्यादेश इस निर्देश के साथ दिया कि -- वादी को अपने हिस्से के अनुसार पानी लेने की अनुमति दी जावे। राजस्व अपील प्राधिकारी ने अपील में इस आदेश को अपास्त कर दिया क्योंकि मोटर पंप के स्वामित्व का प्रश्न राजस्व न्यायालय की क्षेत्राधिकार मैं नहीं आता है।
राजस्व मंडल ने अभी निर्धारित किया कि इस मामले में तात्विक प्रश्न केवल कुए से पानी लेने के बारे में था। पानी लेने के लिए किस साधन को काम में लिया जाए, यह महत्वपूर्ण नहीं था। साधन के बारे में विवाद केवल एक आनुषंगिक है, जो राजस्व न्यायालय की सक्षमता के भीतर है, और अस्थाई व्यादेश देना एक उचित उपचार है, जो विवेकाअधिकार की शक्ति के प्रयोग करने में नहीं था। राजस्व अपील प्राधिकारी का आदेश अपास्त कर मामला वापस भेजा गया।
1980  आर आर डी 338

(6) मंदिर को भूमि आवंटित की गई और उसे गैर खातेदार अभिलिखित कर कब्जा दे दिया गया। प्रतिवादी ने आवंटन रद्द करने के लिए आवेदन किया, जो निरस्त कर दिया गया। उसने ना कोई अपील की, ना खातेदारी घोषणा का कोई दावा किया। संवत 2030 के  के आधार पर उसने आवंटन से पहले खसरा परिवर्तनशील के आधार पर अपना कब्जा बताया, जो अतिक्रमी के रूप में था। (आवेदन खारिज किया गया)
1996 आर आर डी 622 ( खंडपीठ)

(7) भूमि जो राजस्व अभिलेख में आबादी और बंजर अंकित है उसके विभाजन और व्यादेश के लिए वाद सिविल न्यायालय में चलने योग्य है। ऐसा वाद राजस्थान काश्तकारी अधिनियम की धारा 207 के परिक्षेत्र में नहीं आता है।
क्या भूमि कृषि भूमि है या नहीं? यह प्रश्न तथ्य  का प्रश्न है, जिसे केवल पक्षकारों का साक्ष्य अभिलिखित करने के पश्चात किया जा सकता है।
1997  आर आर डी 45 (राजस्थान उच्च न्यायालय)

(8) धारा 188 वह सिविल प्रक्रिया संहिता आदेश 18 नियम 17 व सपथित धारा 151 - वादी गण की साक्षी बंद की किंतु बाद में अतिरिक्त कलेक्टर ने आवेदन स्वीकार किया और सभी साक्षियों को दिनांक 17.8. 2001 को पेश करने का निर्देश दिया-- मामला सहायक कलेक्टर के न्यायालय में संस्थित किया किंतु कलेक्टर ने इसे अतिरिक्त कलेक्टर को अंतरित किया-- वैद्यता-- मामला सक्षम न्यायालय को ही अंतरित किया जा सकता है-- अतिरिक्त कलेक्टर सक्षम नहीं है तथा अतिरिक्त कलेक्टर के द्वारा पारित आदेश एवं अन्य कार्यवाही बिना अधिकारिता के है तथा अपास्त किया तथा मामला वापस सक्षमन्यायालय को भेजने का निर्देश दीया।
2004 (2 ) RRT 1083




(9) साक्ष्य के दौरान अप्रार्थी ने अपंजीकृत विक्रय पत्र को प्रदर्शित करना चाहा -- विचारण न्यायालय ने साक्ष्य मैं ग्रहण करने से इनकार किया- निगरानी- पोषणीयता- धारा 230 का  विस्तार बहुत सीमित है-- आदेश में तात्विक अवैधता या अधिकारिता की त्रुटि नहीं है।
2003 (1) RRT 271

(10) राजस्व अपील अधिकारी के आदेश के विरुद्ध निगरानी याचिका पेश की गई -- वादी ने विक्रय पत्र के आधार पर एक वाद घोषणा का विरुद्ध प्रतिवादी प्रस्तुत किया-- वादी ने दावे के साथ एक प्रार्थना पत्र बाबत अस्थाई निषेधाज्ञा का प्रस्तुत किया -- वादी के पक्ष में अस्थाई निषेधाज्ञा जारी की गई-- अभीनिर्धारित-, वादी को अपंजीकृत विक्रय पत्र के आधार पर दवा लेने का अधिकार नहीं है-- वादी को धारा 19 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम में खातेदारी भी अधिकार भी प्राप्त नहीं होते हैं, संवत 2012 में वह इस आराजी पर अपकर्षक की हैसियत से दर्ज नहीं था -- आर आर डी 1974 पेज 305 के अनुसार अपंजीकृत विक्रय पत्र के आधार पर कर्यकर्ता को कोई स्वत्व प्राप्त नहीं होते हैं, उस के पक्ष में अस्थाई निषेधाज्ञा जारी नहीं की जा सकती है।
2002 (2) RRT 1175

(11) प्रार्थी गण द्वारा अस्थाई निषेधाज्ञा के आवेदन के साथ स्थाई निषेधाज्ञा हेतु वाद पेश किया -- आधिपत्य की डिक्री पहले से ही रेस्पोंडेंट  के पक्ष में थी-- प्रार्थी गण के पक्ष में प्रथम दृष्टया मामला नहीं-- राजस्व अपील अधिकारी ने सही तौर पर अस्थाई निषेधाज्ञा का आदेश अपास्त किया व पुष्टि राजस्व मंडल ने की-- आदेशों में अवैधता नहीं-- याचिका रद्द की।
2000 ( 2)  डी एन जे 691 (राजस्थान)

(12) विभाजन एवं घोषणा का दावा किया की दवा डिक्री किया जाए, और सभी पक्षकारों को 1 बटा 6 भाग के हकदार होना मौखिक परिवारिक समझौते के आधार पर माना जावे, को अधीनस्थ न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया-- तीनों अधीनस्थ न्यायालयों के समवर्ती निष्कर्ष  थे-- हस्तक्षेप नहीं किया गया।
2013 आर आर डी 309 (राजस्थान उच्च न्यायालय)

(13) वाद पत्र का लौटया जाना-- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 34 / 38 के अंतर्गत घोषणा एवं स्थाई निषेधाज्ञा का वाद-- क्या सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित है-- अभी निर्धारित प्रश्नगत कृषि भूमि है और दवा राजस्व न्यायालय द्वारा विचार योग्य है - राजस्व न्यायालय के द्वारा खातेदारी अधिकारों की घोषणा प्रतिकूल कब्जे के आधार पर की जा सकती है-- 207 राजस्थान काश्तकारी अधिनियम की दृष्टि से सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित है-- जिला न्यायाधीश द्वारा वाद पत्र को लौटाने और राजस्व न्यायालय में दाखिल किए जाने का आदेश सम्यक रूप से पारित किया गया था।
2010 आर आर डी 509 (राजस्थान उच्च न्यायालय)



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