राजस्व न्यायलयों का क्षेत्राधिकार-
Suit and applications Cognizable by revenue court only--Sec.207 R.T.Act.
स्थानीय विधियों का भी अत्यंत महत्व है।इनमे राजस्व विधियों में राजस्थान कास्तकारी अधिनियम 1955 का अधिनियम महत्पूर्ण अधिनियम है।तमाम राजस्व प्रकति के वादों व अनुतोषो का उपबंध व प्रक्रिया इस अधिनियम में उपबंधित की गयी है।इस अधिनियम के तृतीय अनुसूची में वर्णित तमाम वाद की सुनवाई राजस्व न्यायालय द्वारा की जाती है।सिविल प्रक्रिया सहिंता की धारा 9. जब तक वर्जित न हो,न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेगे--
Courts to try all civil suit unless barred --The court shall (subject to the provisions herein contained) have jurisdiction to try all suits of a civil nature excepting suits of which their cognizance is either expressly or implied barred.
{Explanation 1}---A suit in which the right to property or to an office is contested is a suit of a civil nature,notwithstanding that such right may depend entirely on the decision of questions as to religious rites or ceremonies.
{Explanation 2}---For the purposes of this section,it is immaterial whether or not such office is attached to a particular place.
इस प्रकार स्पष्ट हे की सिविल प्रकति का वाद सुनने की अधिकारिता सिविल न्यायालयों को हे बशर्ते किसी विधि से उनका क्षेत्राधिकार वर्जित न कर दिया हो।
राजस्थान कास्तकारी अधिनियम की धारा 207 में राजस्व वाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार मात्र राजस्व न्यायालयो को होना उपबंधित किया गया है।यानि राजस्व प्रकर्ति के तमाम वादों का सुनवाई का अधिकार इस धारा के अंतर्गत सिविल न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र वर्जित किया गया है तथा राजस्व प्रकति के वाद राजस्व न्यायलयों द्वारा ही सुने व ग्रहण किये जाएंगे।इसमें प्राथना पत्र भी सम्मिलित है।
धारा 207---केवल राजस्व न्यायालय द्वारा संज्ञेय वाद व आवेदन--
1. तृतीय अनुसूची में वर्णित सभी प्रकार के वाद और आवेदन राजस्व न्यायालय द्वारा सुने व निर्णीत किये जायेंगे।
2. राजस्व न्यायालय से भिन्न कोई न्यायालय, ऐसे किसी वाद या आवेदन द्वारा कोई अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है,संज्ञान नहीं करेगा।
स्पष्टीकरण-- यदि वाद का कारण ऐसा हो जिसके बारे में में अनुतोष राजस्व न्यायालय द्वारा अनुदत्त किया जा सकता हो तो यह महत्वहीन है कि सिविल न्यायालय से चाहा गया अनुतोष उस अनुतोष से,जो राजस्व न्यायालय प्रदान कर सकता था, बड़ा है या उसके अतिरिक्त है या उसके तदरूप नहीं है।
इस प्रकार इस अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार राजस्व प्रकति के वादों का क्षेत्राधिकार सिविल न्यायलयों का वर्जित किया गया है।यह यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीसरी अनुसुची में वर्णित है या उनके स्वरूप में आते है।उक्त तमाम प्रकार के वाद राजस्व न्यायालय द्वारा ही सुनवाई हेतु ग्रहण व निर्णीत किये जायेंगे।
इस धारा के सूक्ष्म अध्यन से व माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय व राजस्व न्यायलय के निर्णयों के अनुसार--
पिता की म्रत्यु के बाद हिस्सा परिवार में न्यायगत हुआ।उसके हिस्सा की घोषणा का दावा रेवन्यू बोर्ड तक डिक्री हुआ।दूसरा दावा सिविल कोर्ट में गोद विलेख व वसीयत को शून्य व निरस्त करवाने की घोषणा बाबत किया।
अभिनिर्धारित---सिविल न्यायालय को क्षेत्राधिकार था।वाद धारा 207 (2) द्वारा वर्जित नहीं है
2012 RRD 501(HC)
सिविल न्यायलय का क्षेत्राधिकार नहीं माना गया।
2019 RRD 509 (HC)
AIR 1985 SC 545 में अभिनिर्धारित किया गया है कि कृषक को धन भूमि बंधक रखकर बैंक द्वारा दिया गया उसकी वसूली का वाद सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार का माना गया है।
इस प्रकार वाद को प्रतुत करने के पूर्व इन सभी धाराओं का अध्यन जरुरी है अन्यथा गलत न्यायालय में प्रस्तुत किया गया वाद आदेश 7 नियम 11 में ख़ारिज या सक्षम न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु लोटा दिया जावेगा।
धारा 208 में सिविल प्रक्रिया संहिता के कोनसे प्रावधान राजस्व वादों की प्रक्रिया के दौरान लागु होंगे उन प्रावधानों का विवेचन किया गया है।
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राजस्व न्यायलयों का क्षेत्राधिकार-
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स्थानीय विधियों का भी अत्यंत महत्व है।इनमे राजस्व विधियों में राजस्थान कास्तकारी अधिनियम 1955 का अधिनियम महत्पूर्ण अधिनियम है।तमाम राजस्व प्रकति के वादों व अनुतोषो का उपबंध व प्रक्रिया इस अधिनियम में उपबंधित की गयी है।इस अधिनियम के तृतीय अनुसूची में वर्णित तमाम वाद की सुनवाई राजस्व न्यायालय द्वारा की जाती है।सिविल प्रक्रिया सहिंता की धारा 9. जब तक वर्जित न हो,न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेगे--
Courts to try all civil suit unless barred --The court shall (subject to the provisions herein contained) have jurisdiction to try all suits of a civil nature excepting suits of which their cognizance is either expressly or implied barred.
{Explanation 1}---A suit in which the right to property or to an office is contested is a suit of a civil nature,notwithstanding that such right may depend entirely on the decision of questions as to religious rites or ceremonies.
{Explanation 2}---For the purposes of this section,it is immaterial whether or not such office is attached to a particular place.
इस प्रकार स्पष्ट हे की सिविल प्रकति का वाद सुनने की अधिकारिता सिविल न्यायालयों को हे बशर्ते किसी विधि से उनका क्षेत्राधिकार वर्जित न कर दिया हो।
राजस्थान कास्तकारी अधिनियम की धारा 207 में राजस्व वाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार मात्र राजस्व न्यायालयो को होना उपबंधित किया गया है।यानि राजस्व प्रकर्ति के तमाम वादों का सुनवाई का अधिकार इस धारा के अंतर्गत सिविल न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र वर्जित किया गया है तथा राजस्व प्रकति के वाद राजस्व न्यायलयों द्वारा ही सुने व ग्रहण किये जाएंगे।इसमें प्राथना पत्र भी सम्मिलित है।
धारा 207---केवल राजस्व न्यायालय द्वारा संज्ञेय वाद व आवेदन--
1. तृतीय अनुसूची में वर्णित सभी प्रकार के वाद और आवेदन राजस्व न्यायालय द्वारा सुने व निर्णीत किये जायेंगे।
2. राजस्व न्यायालय से भिन्न कोई न्यायालय, ऐसे किसी वाद या आवेदन द्वारा कोई अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है,संज्ञान नहीं करेगा।
स्पष्टीकरण-- यदि वाद का कारण ऐसा हो जिसके बारे में में अनुतोष राजस्व न्यायालय द्वारा अनुदत्त किया जा सकता हो तो यह महत्वहीन है कि सिविल न्यायालय से चाहा गया अनुतोष उस अनुतोष से,जो राजस्व न्यायालय प्रदान कर सकता था, बड़ा है या उसके अतिरिक्त है या उसके तदरूप नहीं है।
इस प्रकार इस अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार राजस्व प्रकति के वादों का क्षेत्राधिकार सिविल न्यायलयों का वर्जित किया गया है।यह यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीसरी अनुसुची में वर्णित है या उनके स्वरूप में आते है।उक्त तमाम प्रकार के वाद राजस्व न्यायालय द्वारा ही सुनवाई हेतु ग्रहण व निर्णीत किये जायेंगे।
इस धारा के सूक्ष्म अध्यन से व माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय व राजस्व न्यायलय के निर्णयों के अनुसार--
पिता की म्रत्यु के बाद हिस्सा परिवार में न्यायगत हुआ।उसके हिस्सा की घोषणा का दावा रेवन्यू बोर्ड तक डिक्री हुआ।दूसरा दावा सिविल कोर्ट में गोद विलेख व वसीयत को शून्य व निरस्त करवाने की घोषणा बाबत किया।
अभिनिर्धारित---सिविल न्यायालय को क्षेत्राधिकार था।वाद धारा 207 (2) द्वारा वर्जित नहीं है
2012 RRD 501(HC)
सिविल न्यायलय का क्षेत्राधिकार नहीं माना गया।
2019 RRD 509 (HC)
AIR 1985 SC 545 में अभिनिर्धारित किया गया है कि कृषक को धन भूमि बंधक रखकर बैंक द्वारा दिया गया उसकी वसूली का वाद सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार का माना गया है।
इस प्रकार वाद को प्रतुत करने के पूर्व इन सभी धाराओं का अध्यन जरुरी है अन्यथा गलत न्यायालय में प्रस्तुत किया गया वाद आदेश 7 नियम 11 में ख़ारिज या सक्षम न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु लोटा दिया जावेगा।
धारा 208 में सिविल प्रक्रिया संहिता के कोनसे प्रावधान राजस्व वादों की प्रक्रिया के दौरान लागु होंगे उन प्रावधानों का विवेचन किया गया है।
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