व्यादेश तथा रिसीवर की नियुक्ति का उपबंध--Provision for injunction and appointment of receiver. Section 212 RT Act. - CIVIL LAW

Sunday, February 5, 2017

व्यादेश तथा रिसीवर की नियुक्ति का उपबंध--Provision for injunction and appointment of receiver. Section 212 RT Act.

व्यादेश तथा रिसीवर की नियुक्ति का उपबंध--Provision for injunction and appointment of receiver.
Section 212 RT Act.
राजस्थान कास्तकारी अधिनियम में व्यादेश तथा रिसीवर की नियुक्ति का उपबंध धारा 212 में किया गया है।राजस्व विधि में इस  अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण धारा है।इस अधिनियम के अधीन प्रत्येक वाद या कार्यवाही में विवादग्रस्त सम्पति के परिक्षण व् आधिपत्य के संरक्षण के लिए तत्काल निवारक अनुतोष की आवश्यकता होती है।इसकी व्यवस्था इस धारा में की गयी है।
धारा 212-- R.T.Act. व्यादेश के लिए और रिसीवर की नियुक्ति के लिए उपबंध-- यदि इस अधिनियम के अंतर्गत किसी वाद या कार्यवाही में शपथ-पत्र द्वारा या अन्य प्रकार से यह सिद्ध हो जाय कि---
(क) कोई सम्पति जिसके बारे में ऐसा वाद या कार्यवाही सम्बन्धित है, उसके किसी पक्षकार द्वारा दुरूपयोग किए जाने,नुकशान पहुचाने,या या अन्य संक्रांत किये जाने का खतरा है,या
(ख) उक्त वाद या कार्यवाही का कोई पक्षकार, न्याय के उदेश्य को सफल  नही होने देने के अभिप्राय से उक्त सम्पति हटाने या व्ययन करने की धमकी देता है या ऐसा आशय रखता है,
तो  न्यायालय अस्थाई व्यादेश जारी कर सकेगा और यदि आवश्यक हो तो,रिसीवर नियुक्त कर सकेगा।
(2) कोई व्यक्ति,जिसके विरुद्ध उपधारा (1)के अधीन व्यादेश दिया गया है अथवा जिसकी सम्पति के बारे में रिसीवर नियुक्त किया गया हो, वाद या कार्यवाही का निर्णय उसके खिलाफ हो जाने की दशा में,विरोधी पक्षकार को क्षतिपूर्ति देने के लिए ऐसी राशी, जो न्यायालय तय करे,और ऐसी प्रतिभूति रकम जमा किए जाने पर   न्यायालय व्यादेश या रिसीवर की नियुक्ति के आदेश को वापस ले सकेगा।
सिविल प्रक्रया संहिता के आदेश 39 और 40 के उपबंधों को धारा 212 में सिमित परिक्षेत्र में समलित होते है।यह उपबंध धारा 212 के उपबंधों से असंगत नहीं है,अतः उनको धारा 208 के अनुसार लागू समझना चाहिये।
1964 RRD 25
इस प्रकार व्यादेश हेतु आवश्यक शर्ते आदेश 39 अनुसार इस धारा में व्यादेश प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। जो निम्न है--

प्रथम दृष्टया मामला (Prima facie Case) --
प्रथम दृष्टया मामला से तात्पर्य उस मामले से है जिसमे उसके समर्थन में दी गयी साक्ष्य पर विश्वास किया जा सके।इसका अर्थ यह नहीं है कि उस मामले को पूर्ण रूप से साबित कर दिया गया है बल्कि जिस मामले में ठोस व मजबूत रूप से स्थापित हुआ कहा जा सके।इस प्रकार ऐसा मामला जिसे यदि विरोधी पक्ष खंडित नहीं कर सके तो वादी को डिक्री मिल जायेगी।ऐसा मामला प्रथम दृष्टया मामला कहा जायेगा।
कोई मामला प्रथमिक है या नहीं इसका भार वादी पर होता है। वह शपथ पत्र या अन्य साक्ष्य द्वारा यह साबित करे कि उसके हक़ में प्रथम दृष्टया मामला मामला बनता है जिसका अंतिम निर्णय वाद में विचारण करके होगा।
प्रथम दृष्टया मामले का अर्थ प्रथम दृष्टया हक़ से नहीं है जो विचारण पर साक्ष्य से साबित होता है।प्रथम दृष्टया मामला सदभाव पूर्वक उठाया गया एक सारभूत प्रशन है जिसे अन्वेषण और गुणा गुण पर विनिश्चित किया जाना है।केवल प्रथम दृष्टया मामला से संतुष्ट होना ही व्यादेश का आधार नहीं है बल्कि न्यायालय को अन्य निम्न बिंदुओं को भी देखना होगा।
सुविधा का संतुलन--
     व्यादेश चाहने वाले पक्ष को सुविधा संतुलन उसके पक्ष में होना बताना पड़ेगा।न्यायालय जब व्यादेश मंजूर कर रहा हो या इंकार कर रहा हो तो उसे क्षति को उस सारभूत रिष्टि को ध्यान में रखते हुए युक्ति युक्त न्यायिक विवेचन का प्रयोग करना चाहिये जो पक्षो को व्यादेश मंजूर करने पर दूसरे पक्ष को हो सकती है।
सुविधा संतुलन उसके पक्ष में होना आवश्यक है जो अनुतोष की मांग करता है।
. ए.आई. आर 1990 सु. कोर्ट.867
अपूर्तनीय क्षति--
यदि पक्षकार को व्यादेश नहीं दिया गया तो पक्षकार को अपूर्तनीय क्षति होगी और व्यादेश देने के अलावा पक्षकार को अन्य कोई उपचार उपलब्ध नहीं है और क्षति या बेकब्जे के परिणामो से उसे संरक्षण की आवश्यकता है।यह एक ऐसी तात्विक क्षति होनी चाहिये जिसकी पूर्ति नुकसानी के रूप में पर्याप्त रूप से नहीं की जा सकती हो।यह भी कह सकते है कि उस क्षति की पूर्ति सामान्यतया धन से नहीं की जा सकती हो।
व्यादेश प्राप्त करने के लिये उक्त तीनों घटको का होना आवश्यक है,इनमे से एक के भी आभाव में न्यायालय व्यादेश देने से इंकार कर देगा।
न्यायालय यदि मुलभुत घटको पर विचार नहीं करता है तथा तीनो घटको पर विचार नहीं किया है तो आदेश विधि के प्रतिकूल है और विचारण न्यायालय को तीनों घटको पर निष्कर्ष अभिलिखित करना आज्ञापक था।विचारण न्यायालय का आदेश अपास्त किया।
2013(3) डी. एन. जे. (राज.)1006
अस्थाई व्यादेश प्राप्त होने के लिए तीन शर्ते है जो साथ साथ स्थित होनी  चाहिये। यदि इन में से एक का भी आभाव होगा तो व्यादेश प्रदान नहीं होगा।
1996(1) डी. एन. जे.(राज.)12
 अस्थाई व्यादेश--आवश्यक शर्ते-इन शर्तों का स्पष्टीकरण।
1995(1)डी. एन. जे.(राज.)59
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आदेश 39 नियम 1व 2में ऐश
अस्थाई व्यादेश प्राप्त करने के लिए उक्त तीनों शर्तो का विद्यमान होना आवश्यक है।
राजस्व विधि में सामान्तया सह खातेदार के विरुद्ध व्यादेश जारी नहीं किया जाता है परंतु खातेदार के विधि विरुद्ध अपकृत्य को रोकने के लिए सहखातेदार के विरुद्ध भी व्यादेश जारी किया जा सकेगा। जैसे--
यदि कोई सह खातेदार रिश्तेदार है, और किसी विशिष्ट भूमि पर वे अपना अधिकार बताना चाहते है तो ऐसी स्थति  में उन्हें अस्थाई व्यादेश से रोका जा सकता है।
2010 RRD 96.
1993 RRD 206
अविभाजित जोत का विक्रय करने पर खरीददार के विरुद्ध अपरिचित खरीदार होने से विशिष्ट भूभाग पर काबिज होने के विरुद्ध अस्थाई व्यादेश जारी किया जा सकेगा।
1996 RRD 148 {L.B.}
इसी प्रकार सहिंता के आदेश 3 भी इस धारा के अधीन आदेशो में लागू होंगे।
यदि न्यायालय ने एकपक्षीय आदेश जारी किया है तो आदेश 39 नियम 3 की पालना भी सुनिशित करेगा। यह न्यायिक कार्यवाही में प्रचलन में है।परन्तु यह आज्ञापक नहीं है।क्योंकि धारा 208 के प्रावधान इस सम्बन्ध में स्पष्ठ है।और आदेश 39 नियम 3 के अनुसार कार्यवाही नहीं किये जाने पर धारा 212 के तहत दिया गया आदेश अवैध नहीं ठहराया जा सकता है।
किन प्रकरणो में व्यादेश दिया जा सकता है तथा किनमे अस्वीकार कर दिया जायेगा।यह हम आगे आपको क़ानूनी नजीरों सहित विवेचन करेगे।
यह एक महत्वपूर्ण धारा है।इस कारण ज्यादा उपयोग के कारण ऐसे मुकदमो की बाढ़ आ रही है।जिससे निर्णयों की भी बाढ़ आ रही है।सभी बिंदुओं पर हुए निर्णयों का विवेचन आगे करते रहेंगे जो आपके लिए बहुत उपयोगी साबित होगा।

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