Jurisdiction of the court and suits of civil nature
प्रक्रिया सहिंता की धारा 2 में सहिंता में प्रयुक्त किये गए शब्दो को परिभाषित किया गया है।जो मुख्य मुख्य निम्न है।धारा 2(1)"संहिता" के अंतर्गत नियम आते है;
धारा 2(2)"डिक्री"से ऐसे न्याय निर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है जो कि जहा तक की वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्यायालय से सम्बंधित है,वाद में के सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयो के सम्बन्ध में पक्षकारो के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारित करता है और वह या तो प्राथमिक या अंतिम हो सकेगी। किन्तु उसमे -
(अ) ऐसा कोई न्यायनिर्णय नहीं होगा,जिसकी अपील आदेश की तरह होती है; या
(बी) चूक(default)के लिए ख़ारिज करने का आदेश।
यह अशंतः प्राथमिक और अंशतः अंतिम हो सकेगी।धारा२(२)
इसी प्रकार धारा 2(3)से लेकर धारा 2(20)में संहिता में प्रयुक्त शब्दो को परिभाषित किया गया है।
हम यहाँ सभी परिभाषाओं का विवेचन नहीं कर रहे है।सिविल वादों में महत्वपूर्ण धारा 9 है। धारा 9 में न्यायालय की अधिकारिता बाबत विवेचन किया गया है।
अधिवक्ता को वाद लिखने के पूर्व वाद कहा और किस न्यायायलय में पेश करना है यह तय करना होता है।इस कारण धारा 9C P C का गहन अध्ययन होना जरुरी है। यदि गलती से गलत न्यायायलय में वाद पेश होने पर सहिंता के आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत वाद ख़ारिज कर दिया जायेगा।
धारा 9. जब तक वर्जित न हो,न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेगे--
Courts to try all civil suit unless barred --The court shall (subject to the provisions herein contained) have jurisdiction to try all suits of a civil nature excepting suits of which their cognizance is either expressly or implied barred.
{Explanation 1}---A suit in which the right to property or to an office is contested is a suit of a civil nature,notwithstanding that such right may depend entirely on the decision of questions as to religious rites or ceremonies.
{Explanation 2}---For the purposes of this section,it is immaterial whether or not such office is attached to a particular place.
इस प्रकार स्पष्ट हे की सिविल प्रकति का वाद सुनने की अधिकारिता सिविल न्यायालयों को हे बशर्ते किसी विधि से उनका क्षेत्राधिकार वर्जित न कर दिया हो। शीघ्र व अच्छे न्याय के लिए सिविल न्यायलयों विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है।सिविल न्यायलयों को क्षेत्राधिकार दिया गया है ।
Jurisdiction--क्षेत्राधिकार से अभिप्राय उस शक्ति से है जो कि न्यायालय में वादों, अपीलों एवम प्रथनापत्रो को सुनवाई हेतु ग्रहण करने हेतु प्राप्त होती है।क्षेत्राधिकार--विषय वस्तु सम्बन्धी, स्थानीय या प्रादेशिक, आर्थिक व आरम्भिक या अपीलीय होते है।
यह कि कोई सिविल प्रकति का वाद हे या नहीं यह वाद की विषय वस्तु से सम्बन्ध रखता है।
अब आगे हम वाद व लिखित कथन के बारे में बताएंगे जो पाठको के लिए बहुत काम आएगा।वाद तैयार करने के पूर्व हमें धारा10 व11 सी पी सी का अध्यन आवश्यक है ।
धारा10 सी पी सी--वाद का रोक दियाजाना--किसी पक्षकारो के मध्य उसी विषय वस्तु ,अधिकार का वाद उसी अदालत या भारत में किसी न्यायालय जिसे अदालत वाद सुनने की अधिकारिता रखती हो चल रहा हो तो उसी विषय वस्तु या अधिकार बाबत पुनः किया गया वाद न्यायालय को न्यायालय रोक स्थगन कर सकेगा।
धारा 11सी पी सी--पूर्व न्याय-कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नहीं करेगा जिसमे directly and substantiallyविवाद विषय उसी के हक़ के अधीन वाद करने वाले पक्षकारो के बीच के,मध्य पूर्व में अंतिम हक़ का निधार्रण हो चूका हो तो उसी विषय वस्तु या अधिकार बाबत पुनः न तो सुना जायेगा न ही निर्णीत विषय वस्तु या अधिकार बाबत Res judicata के सिद्धान्त के अनुसार वाद का विचरण न्यायालय नहीं करेगा यानी ऐसा वाद नहीं चलेगा ।दोस्तों सरल भाषा में वाद तैयार करने के पूर्व जानकारी देने का प्रयास किया है।आगे इस सम्बन्ध में क़ानूनी नजीरों सहित आपको अवगत करता रहूंगा।यदि आपको मेरा ब्लॉग पसंद आये तो like kare. Please follow me.
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ReplyDeleteGood evening, sir
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ReplyDeleteGood morning
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