Certain principles regarding interest payable to Parties-Section 34 of C.P.C - CIVIL LAW

Sunday, June 3, 2018

Certain principles regarding interest payable to Parties-Section 34 of C.P.C

Certain principles regarding interest payable to Parties-Section 34 of C.P.C
पक्षकारों को देय ब्याज के बारे में कतिपय सिद्धांत - धारा 34 सी.पी.सी.


  संहिता में पक्षकारों को देय ब्याज के बारे में भी कतिपय सिद्धांत धारा 34 सिविल प्रक्रिया संहिता में प्रतिपादित किए गए हैं जिसके अनुसार --

(1) वाद संस्थित करने के पूर्व की ब्याज की दर पक्षकारों में करार सुदा अथवा सविंदाकृत हो सकती है।
(2) वाद के विचारण काल में ब्याज की दर न्यायालय अपने विवेकानुसार तय कर सकता है।
(3) डिक्री की तिथि से संदाय की तिथि तक के ब्याज की दर अधिकतम 6% वार्षिक हो सकती है। लेकिन वाणिज्य सव्यवहारो मैं यह दर अधिक भी हो सकती है।

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सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 34 निम्न प्रकार से उपबंधित की गई है--

धारा 34 सिविल प्रक्रिया संहिता--ब्याज -Interest-
(1) जहां और जहां तक की डिक्री धन के संदाय के लिए है, न्यायालय डिक्री में यह आदेश दे सकेगा की न्यायनिर्णित मूल राशि पर किसी ऐसे ब्याज के अतिरिक्त जो ऐसे मुल राशि पर वाद संस्थित किए जाने से पूर्व की किसी अवधि के लिए न्याय निर्णित हुआ है, वाद की तारीख से डिक्री की तारीख तक ब्याज, ऐसे दर से जो न्यायालय युक्ति युक्त समझे, ऐसी मूल राशि पर डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख तक या ऐसे पूर्वतर तारीख तक जो न्यायालय ठीक समझे, 6% प्रतिवर्ष से अनधिक ऐसी दर जो न्यायालय युक्तियुक्त समझे, आगे के ब्याज सहित, दिया जाए;

     परंतु जहां इस प्रकार न्याय निर्णित राशि के संबंध में दायित्व किसी वाणिज्यक संव्यवहार से उद्भूत हुआ था वहां एसे आगे ब्याज की दर छह प्रतिशत  प्रतिवर्ष की दर से अधिक हो सकती है, किंतु ऐसी दर ब्याज की संविदात्मक दर से या जहां कोई संविदात्मक दर नहीं है, वहां उस दर से अधिक नहीं होगी जिस पर वाणिज्यक संव्यवहार के संबंध में राष्ट्रीयकृत बैंक धन उधार या अग्रिम देते हैं।

स्पष्टीकरण - इस उप धारा में "राष्ट्रीयकृत बैंक" से बैंककारी कंपनी (उपकर्मो का अर्जन और अंतरण) अधिनियम, 1970 (1970 का 5) मैं यथा परिभाषित ततस्थानि नया बैंक अभिप्रेत है।

स्पष्टीकरण-- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, कोई सव्यवहार वाणिज्यक संव्यवहार है, यदि वह दायित्व उपगत करने वाले उस पक्षकार के उद्योग, व्यापार या कारोबार से संबंधित है।

(2) जहां ऐसी मूल राशि पर डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख तक या अन्य पूर्वतर तारीख तक आगे के ब्याज के संदाय के संबंध में ऐसी डिक्री मौन है वहां यह समझा जायेगा कि न्यायालय ने ऐसा ब्याज दिलाने से इंकार कर दिया है और उसके लिए पृथक वाद नहीं होगा।




इस इस प्रकार संहिता में पक्षकारों को देय ब्याज के बारे में धारा 34 उपबंधित की गई है। विभिन्न न्यायिक निर्णय सहित इस धारा का विवेचन इस प्रकार है --

(1) एक मामले में कृषि प्रयोजनार्थ लिए गए ऋण के संबंध में संविदाकृत ब्याज की दर को उचित ठहराया गया।
1994 ए आई आर( एनओसी) 266 (मध्य प्रदेश)

(2) वाद संस्थित करने तक ब्याज की गणना मूलधन पर की जानी चाहिए। मूलधन और ब्याज पर ब्याज की गणना की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
2000 ए आई आर (मुंबई) 51

(3) किसी भी वाद का निष्पादन करने वाले न्यायालय को उसकी डिक्री की शर्तों से आबद्ध किया जाता है। न्यायालय निष्पक्षता या न्याय के विचार से डिक्री में न तो कुछ बढा सकता है और ना ही उसमें कोई परिवर्तन हीं कर सकता है।
1990 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट)2177

(4) यदि दावा प्रस्तुत करने के पूर्व ब्याज की मांग नहीं की गई हो तो केवल दौराने वाद तथा भविष्य का ही ब्याज दिया जा सकता है।
1995  ए आई आर (उड़ीसा) 62




(5) दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक वाद में निर्धारित किया है कि प्रश्नगत जमा धनराशि के ऊपर अधिरोपित करने योग्य ब्याज की दर का प्रश्न उठता है, तो वहां पर वादी उस धनराशि पर प्रचलित ब्याज की दर से ब्याज प्राप्त करने का हकदार होगा। धन राशि के ऊपर ब्याज नोटिस जारी होने की तिथि से प्रवर्तनीय होगा।
1991 ए आई आर (दिल्ली) 1

(6) एक मामले में दावा करता को होटल के स्विमिंग पूल से शारीरिक चोट आई और होटल की उपेक्षा के परिणाम स्वरुप उसकी मृत्यु हो गई, वहां वाद करता की मृत्यु क्षतिपूर्ति के लिए वाद संस्थित किए जाने के बाद हुई थी। ऐसी दशा में यह अभीनिर्धारित किया गया कि स्वीकृत प्राप्त धनराशि संबंधी रकम पर ब्याज वाद के संस्थित किए जाने की तिथि से नहीं लागू किया गया बल्कि उस स्थिति से लागू हुआ माना गया जिस पर दावा करता है कि मृत्यु हुई थी।
1997 ए आई आर (दिल्ली) 201

(7) जब प्रतिवादी के पास पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं है तब ऐसी दशा में द्वारा ब्याज की छूट दी जा सकती है।
1994 ए आई आर (कर्नाटक) 123

(8) किसी वाद में संबंधित न्यायालय द्वारा पारित किए हुए एक पूर्ववर्ती आदेश में कोई प्रकट त्रुटि या स्पष्ट कार्य का लोपन होता है, तो वहां आदेश पुनर्विलोकन के लिए जाने योग्य होता है। संहिता की धारा 2(12) के अंतर्गत अन्तःकालीन लाभ का ही अभिप्राय रखती है।
1989 ए आई आर (बॉम्बे) 309

(9) विधिक प्रक्रिया का अनुपालन ना करने के कारण उसके द्वारा प्रस्तुत याचिका को विशेष हर्जाना ने सहित निरस्त किया गया। पूर्व हर्जाना  अदा न करने की दशा में प्रस्तुत अपील को भी निरस्त कर दिया गया।
1995 ए आई आर (राजस्थान) 25




(10) जहां किसी के वेतन का निर्धारण करना का प्रश्न विचारणीय बन जाता है, तो वहां सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 34 के प्रावधान लागू होते हैं।
1992 ए आई आर (पंजाब और हरियाणा) 22

(11) यदि वादी द्वारा अनुबंध में ब्याज की शर्त के पश्चात भी गलत नाम के आधार पर बढ़ाकर राशि की मांग की गई हो तथा कार्य अधूरा छोड़ दिया गया हो तो ब्याज पाने का अधिकारी नहीं होगा।
1995  ए आई आर (बॉम्बे) 180

(12) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 34 यह कथन करती है कि कोई भी न्यायालय एक विचाराधीन वाद के मूलधन पर अधिकतम 6% की दर से ही ब्याज का भुगतान किए जाने का निर्णय दे सकती है। न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि किन्हीं समुचित मामलों में संबंधित न्यायालय के पास उनके मूलधन पर पूर्वोक्त दर से भी कम ब्याज का भुगतान करने के संदर्भ में निर्णय देने का विवेकाधिकार होता है लेकिन उक्त प्रसंग में माननीय न्यायालय ने यह भी राय उजागर किया कि किसी भी स्थिति में उक्त वर्णित ब्याज की दर को 6% से अधिक नहीं होना चाहिए। माननीय न्यायालय ने इस तर्क का भी समर्थन किया कि संहिता की धारा 34 केवल उन्ही मामलों के प्रति लागू होती है जिनमें डिग्री को संबंधित न्यायालय द्वारा किसी प्रश्नगत धन का भुगतान करने हेतु पारित किया जाना होता है।
1992 ए आई आर (केरल) 329

(13) जब भूमि अधिग्रहण की अवार्ड राशि ना उठाने का उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन दीया गया हो तो 9% ब्याज दिलाया जा सकता है।
1994 ए आई आर (एनओसी) 71 आंध्र प्रदेश

(14) राष्ट्रीय कृत बैंक एक लोक सेवी संस्था है जो सार्वजनिक हित में कार्य करती है। बैंक से लिए गए ऋण चुकाने की उस व्यक्ति की मंशा नहीं रही। ब्याज की दर को घटाने हेतु किसी दबाव करने वाली परिस्थितियां का उल्लेख नहीं। न्यायालय ने अभि निर्धारित किया कि ब्याज की दर को कम कर देना सार्वजनिक हित के प्रति अन्याय होगा न कि वादी को हानि होगी।
1994 (1) DNJ  (Raj) 152

(15) एक मामले में संव्यवहार वाणिज्यक प्रकृति का था इसलिए 6 पर्सेंट वार्षिक दर पर ब्याज की परिसीमा लागू नहीं होगी इसके परिणाम स्वरुप न्यायालय के विवेकाधिकार में पारित किया गया 12% की दर पर ब्याज की मंजूरी को उचित माना गया।
2007 ए आई आर (एनओसी) 743(बॉम्बे)


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