लिखित कथन -- आदेश 8 सीपीसी
Written Statement -Order 8 CPC
किसी भी व्यक्ति को न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता यानी न्याय सबके लिए है, चाहे वह
वादी हो या प्रतिवादी। वादी वाद पत्र के द्वारा अपना दावा प्रस्तुत करता है तो प्रतिवादी लिखित कथन के द्वारा अपनी प्रतिरक्षा करता है। वादी न्यायालय से उस अनुतोष की मांग करता है जिसका कि प्रतिवादी के विरुद्ध उसका दावा है। लिखित कथन अभिवचन का एक अंग है। वादी के लिए जो महत्व वादपत्र का है, प्रतिवादी के लिए वही महत्व लिखित कथन का है। वाद पत्र में वादी अपने दावे के तथ्य प्रस्तुत करता है तो लिखित कथन में प्रतिवादी उन तथ्यों का उत्तर प्रस्तुत कर अपनी सफाई पेश करता है। लिखित कथन पर ही प्रतिवादी की सफलता काफी सीमा तक निर्भर करती है। लिखित कथन संबंधी उपबंध सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 मैं दिये गये है जो इस प्रकार है --
वादी हो या प्रतिवादी। वादी वाद पत्र के द्वारा अपना दावा प्रस्तुत करता है तो प्रतिवादी लिखित कथन के द्वारा अपनी प्रतिरक्षा करता है। वादी न्यायालय से उस अनुतोष की मांग करता है जिसका कि प्रतिवादी के विरुद्ध उसका दावा है। लिखित कथन अभिवचन का एक अंग है। वादी के लिए जो महत्व वादपत्र का है, प्रतिवादी के लिए वही महत्व लिखित कथन का है। वाद पत्र में वादी अपने दावे के तथ्य प्रस्तुत करता है तो लिखित कथन में प्रतिवादी उन तथ्यों का उत्तर प्रस्तुत कर अपनी सफाई पेश करता है। लिखित कथन पर ही प्रतिवादी की सफलता काफी सीमा तक निर्भर करती है। लिखित कथन संबंधी उपबंध सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 मैं दिये गये है जो इस प्रकार है --
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नियम 1- लिखित कथन-
प्रतिवादी अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन समन की तामील की तारीख से 30 दिन के अंदर प्रस्तुत करेगा।
परंतु यदि प्रतिवादी 30 दिन के अंदर लिखित कथन प्रस्तुत करने में असफल रहता है तो उसे लिखित कारणों के पंजीकरण के आधार पर जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्धारित हो, किसी अन्य दिन प्रस्तुत कर सकता है पर जो समन की तामील की तारीख से 90 दिन से अधिक ना हो।
नियम 1 क. उन दस्तावेजों को पेश करने की प्रतिवादी का कर्तव्य जिनके आधार पर दावे में अनुतोष चाहा गया है --
(1) जहां प्रतिवादी मुजरा या प्रतिदावा के लिए अपनी प्रतिरक्षा या दावे का समर्थन किसी दस्तावेज पर जो अधिकार या समर्थ में हो, दस्तावेजों की सूची बनाएगा और लिखित कथन के साथ उसे न्यायालय में प्रस्तुत करेगा, उसी समय उस दस्तावेज और उसकी प्रति, लिखित कथन के साथ फाइल किए जाने के लिए परिदत्त होगा।
(2) जहां प्रतिवादी के अधिकार या समर्थ मैं वह दस्तावेज नहीं है, वहां वह जहां तक संभव हो सके, यह कथन करेगा कि किसके कब्जे या शक्ति में वह दस्तावेज है।
(3) ऐसी दस्तावेज जो प्रतिवादी द्वारा न्यायालय में पेश की जानी चाहिए और जो इस प्रकार पेश नहीं की गई, न्यायालय की अनुमति के बिना वाद की सुनवाई में प्रतिवादी की ओर से साक्ष्य में नहीं ली जाएगी।
(4) इस नियम की कोई बात ऐसे किसी दस्तावेज में लागू नहीं होगी --
( क) जो वादी को साक्ष्यों की प्रतिरक्षा के लिए पेश किए गए हो, या
( ख) किसी साक्षी को केवल उसकी स्मृति को ताजा करने के लिए दिए गए हो।
नियम 2. नए तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन करना होगा-- प्रतिवादी को अपने अभिवचन द्वारा वह सब बातें उठानी होगी जिनसे से यह दर्शित होता है कि वाद या विधि की दृष्टि से वह व्यवहार शून्य है या शुन्यकरणीय है और प्रतिरक्षा के सब ऐसे आधार उठाने होंगे जो एसे है कि यदि वे ना उठाए गए तो यह सम्भाव्य है कि उनके सहसा सामने आने से विरोधी पक्षकार चकित हो जाएगा या जिनसे तथ्य के ऐसे विवाद्यक पैदा हो जाएंगे जो वाद पत्र से पैदा नहीं होते हैं। उदाहरणर्थ, कपट, परिसीमा, निरमुक्ति, संदाय, पालन या अवैधता दर्शित करने वाले तथ्य।
नियम 3. प्रत्याख्यान विनिर्दिष्टतः होगा - प्रतिवादी के लिए पर्याप्त नहीं होगा कि वह अपने लिखित कथन में उन आधारों का साधारणतः प्रत्याख्यान कर दे जो वादी द्वारा अभीकथित है, किंतु प्रतिवादी के लिए आवश्यक है कि वह नुकसानी के सिवाय ऐसे तथ्य संबंधी हर एक अभिकथन का विनिर्दिष्टतः विवेचन करें जिसकी सत्यता वह स्वीकार नहीं करता है।
नियम 4. वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान-- जहां प्रतिवादी वाद में के किसी तथ्य के अभिकथन का प्रत्याख्यान करता है वहां उसे वैसा वाग्छलपूर्ण तौर पर नहीं करना चाहिए, वरन सार की बात का उत्तर देना चाहिए। उदाहरणर्थ, यह अभी कथित किया जाता है कि उसने एक निश्चित धनराशि प्राप्त की तो यह प्रत्याख्यान कि उसने वह विशिष्ट राशि प्राप्त नहीं की पर्याप्त नहीं होगा वरन उसे यह चाहिए कि वह प्रत्याख्यान करे कि उसने वह राशि या उसका कोई भाग प्राप्त नहीं किया या फिर यह उप वर्णित करना चाहिए कि उसने कितनी राशि प्राप्त की, और यदि अभिकथन विभिन्न परिस्थितियो सहित किया गया है तो उन परिस्थितियो सहित उस अभिकथन का प्रत्याख्यान कर देना पर्याप्त नहीं होगा।
नियम 5. विनिर्दिष्टतः प्रत्याख्यान --
(1) यदि वाद पत्र में के तथ्य संबंधी हर अभिकथन का विनिर्दिष्टतः यह आवश्यक विवक्षा से प्रत्याख्यान नहीं किया जाता है या प्रतिवादी के अभिवचन में यह कथन की वह स्वीकार नहीं किया जाता तो जहां तक निर्योग्यताधीन व्यक्ति को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति का संबंध है वह स्वीकार कर लिया गया माना जाएगा;
परंतु ऐसे स्वीकार किए गए किसी भी तथ्य के ऐसी स्वीकृति के अलावा अन्य प्रकार से साबित किए जाने की अपेक्षा न्यायालय स्वविवेकानुसार कर सकेगा।
(2) जहां प्रतिवादी ने अभिवचन फाइल नहीं किया है वहां न्यायालय के लिए वाद पत्र में अंतर्विष्ट तथ्यों के आधार पर निर्णय सुनाना, जहां तक निर्योग्यताधीन व्यक्ति को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति का संबंध है, विधि पूर्ण होगा, किंतु न्यायालय किसी ऐसे तथ्य को साबित किए जाने की अपेक्षा स्वविवेकानुसार कर सकेगा।
(3) न्यायालय उपनियम (1) के परंतुक के अधीन या उप नियम (2) के अधीन अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने में इस तथ्य का सम्यक ध्यान देगा कि क्या वादे किसी प्लीडर को नियुक्त कर सकता था उसने किसी प्लीडर को नियुक्त किया है।
(4) इस नियम के अधीन जब कभी निर्णय सुनाया जाता है तब ऐसे निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जाएगी और ऐसी डिक्री पर वही तारीख दी जाएगी जिस तारीख को निर्णय सुनाया गया था।
नियम 6. मुजरा की विशिष्टियां लिखित कथन में दी जाएगी--
(1) जहां तक धन की वसूली के वाद में प्रतिवादी न्यायालय अधिकारिता की धन संबंधी सीमाओं से अनधिक धन की कोई अभी निश्चित राशि जो वह वादी से वैध रूप से वसूल कर सकता है वादी की मांग के विरुद्ध मुजरा करने का दावा करता है और दोनों पक्षकार वही हैसियत रखते हैं जो वादी के वाद में उनकी है वहां प्रतिवादी मुजरा के लिए चाही गई ऋण की विशिष्टियां देते हुए लिखित कथन वाद की पहली सुनाई पर उपस्थित कर सकेगा, किंतु उसके पश्चात अब तक उपस्थित नहीं कर सकेगा जब तक कि न्यायालय द्वारा उसे अनुज्ञा न दे दी गई हो।
(2) मुजरा का प्रभाव-- लिखित कथन का प्रभाव प्रतिपवाद मैं के वाद पत्र के प्रभाव के सामान ही होगा जिसे न्यायालय मूल दावे और मुजरा दोनों के संबंध में अंतिम निर्णय सुनाने के लिए समर्थ हो जाए, किंतु डिक्रीत रकम पर प्लीडर को डिक्री के अधीन देय खर्चों के बारे में उसके धारणाधिकार पर इससे प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(3) प्रतिवादी द्वारा दिए गए लिखित कथन संबंधी नियम मुजरा के दावे के उत्तर में दिए गए लिखित कथन को भी लागू होते हैं।
नियम 7. पृथक आधार पर आधारित प्रतिरक्षा या मुजरा -- जहां प्रतिवादी पृथक और सुभिन्न तथ्यों पर आधारित प्रतिरक्षा के या मुजरा के या प्रति दावे के कई सुभिन्न आधारों पर निर्भर करता है वहां उनका कथन जहां तक हो सके, प्रथकतः और सुभिन्न किया जाएगा।
नियम 8. प्रतिरक्षा का नया आधा-- प्रतिरक्षा का कोई भी ऐसा आधार जो वाद के संस्थित किये जाने के या मुजरा का दावा करने वाले लिखित कथन के या प्रतिदावे के उपस्थित किए जाने के पश्चात पैदा हुआ है, यथास्थिति, प्रतिवादी या वादी द्वारा अपने लिखित कथन में उठाया जा सकेगा।
नियम 9. पश्चातवर्ती अभीवचन-- प्रतिवादी के लिखित कथन के पश्चात कोई भी अभिवचन जो मुजरा के या प्रति दावे के विरुद्ध प्रतिरक्षा से भिन्न हो, न्यायालय की इजाजत से ही और ऐसे निबंधनो पर जो न्यायालय ठीक समझे, उपस्थित किया जाएगा, अन्यथा नहीं; किंतु न्यायालय पक्षकारों में किसी भी लिखित कथन या अतिरिक्त लिखित कथन किसी भी समय अपेक्षित कर सकेगा और उसे उपस्थित करने के लिए कोई समय जो 30 दिन से अधिक ना हो, नियत कर सकेगा।
नियम 10. जब न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार असफल रहता है तब प्रक्रिया-- जहां ऐसा कोई पक्षकार जिससे लिखित कथन नियम 1 या नियम 9 के अधीन किया गया है, उसे न्यायालय द्वारा, यथास्थिति, अनुज्ञात या नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है वहां न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के संबंध मैं ऐसा आदेश करेगा जो वह ठीक समझे( और ऐसा निर्णय सुनाया जाने के पश्चात डिक्री तैयार की जाएगी)
इस प्रकार उपरोक्त उपबंधो से स्पष्ट है कि प्रतिवादी को अपना लिखित कथन प्रथम सुनवाई पर अथवा उसके पूर्व या ऐसे समय के अंदर जैसा कि न्यायालय आदेश करें, प्रस्तुत करना होगा। ऐसा लिखित कथन समन की तामील होने की तिथि से 30 दिन के भीतर पेश करना आवश्यक होगा। लेकिन यदि लिखित कथन 30 दिवस की अवधि के भीतर प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो कारण अभिलिखित करते हुए न्यायालय द्वारा लिखित कथन प्रस्तुत किए जाने की अवधि में वृद्धि की जा सकेगी, किंतु वह किसी भी दशा में 90 दिन से अधिक की नहीं होगी। प्रतिवादी को अपने लिखित कथन के साथ वे सारे दस्तावेज और उनकी प्रतिलिपियां पेश करनी होगी जिन पर उसकी प्रतिरक्षा आधारित है। यदि कोई दस्तावेज प्रतिवादी के कब्जे में नहीं है तो उसे यह बताना होगा कि वह किसके कब्जे में है। वाद की सुनवाई के दौरान प्रतिवादी द्वारा कोई दस्तावेज न्यायालय की अनुमति के बिना पेश नहीं किया जा सकेगा। लेकिन वादी के साक्षी से प्रतिपरीक्षा करने, अथवा याददाश्त ताजा करने मात्र के लिए पेश किए जाते हैं ऐसे दस्तावेजों के लिए न्यायालय के अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी।
प्रतिवादी द्वारा लिखित कथन प्रस्तुत करने में बड़ी सावधानी एवं सतर्कता से लिखा जा कर प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रत्येक लिखित कथन में निम्नलिखित तथ्यों का आवश्यक रूप से समावेश किया जाना चाहिए।
1. नए तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन किया जाना चाहिए -- प्रतिवादी को जवाब दवा में उन सभी विशेष बातों का उल्लेख करना चाहिए जो यह प्रकट करती हो की वादी का वाद पत्र पोषणीय नहीं है। वह वाद किसी विधि की दृष्टि से या शुन्यकरणीय सव्यवहार से संबंधित है। उसे प्रतिरक्षा में कपट, मर्यादा, सममोचन, देनगी, मिथ्याव्यपदेशन विबंधन आदि को सदर्शित करते हैं; क्योंकि की प्रतिरक्षा के आधार तथ्य के ऐसे विवाद्यक खड़े करते हैं जो वाद पत्र के कथन से पैदा नहीं होते और यदि वे नहीं उठाए गए तो संभाविता है कि उनके अचानक सामने आने से विरोधी पक्षकार परेशानियां मैं पड़ जाएगा ।
2. प्रत्याख्यान स्पष्ट रूप से होना चाहिए-- वाद पत्र में के कथनों को साफ और स्पष्ट रुप से इनकार किया जाना चाहिए। प्रतिवादी के लिए सिर्फ यह लिखना की स्वीकार नहीं है, पर्याप्त नहीं होगा। वादी द्वारा आरोपों का सामान्य प्रत्याख्यान नहीं किया जा कर विशिष्ट रूप से प्रत्याख्यान किया जाना चाहिए।
3. वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान नहीं किया जाना चाहिए-- जहां की प्रतिवादी वाद में के किसी तथ्य के अभिकथन का प्रत्याख्यान करता है, वहां वाग्छल से उसे ऐसा नहीं करना चाहिए उस बात के सार का उत्तर देना चाहिए। इस प्रकार यदि यह अभी कथित किया जाता है कि उसने एक निश्चित धनराशि को प्राप्त किया है तो यह प्रत्याख्यान की उसने उसने उस निश्चित राशि को प्राप्त किया, पर्याप्त नहीं होगा अपितु तो उसे यह चाहिए कि वह इस बात का प्रत्याख्यान करें कि उसने उस राशि या उसके किसी भाग को प्राप्त किया था।
4. प्रत्याख्यान विशिष्ट रूप में किया जाना चाहिए-- इसका तात्पर्य यह है कि प्रतिवादी को अपने लिखित कथन में वादी के प्रत्येक कथन का पूर्ण उत्तर देते हुए प्रत्याख्यान करना चाहिए। यदि प्रतिवादी किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देता है तो यह मान लिया जाएगा कि उसने उसको तुम को स्वीकार कर लिया है।
5. प्रतिसादन की विशिष्टियां को लिखित कथन में दिया जाना -- जहां की धन के प्रत्युद्धरण के लिए प्रतिवादी न्यायालय के क्षेत्राधिकार की आर्थिक सीमाओं से अधिक ना होने वाली धन की कोई अभी निश्चित राशि, जो कि वादी के प्रतिवादी द्वारा वेधरूपेण वसुलनीय है। वादी की मांग के विरुद्ध प्रतिसादन करने का दावा करता है और दोनों पक्षकार वही हैसियत रखते हैं जो कि उनकी वादी के वाद में है वहां प्रतिवादी चाहे गए के प्रतिसादन की विशिष्टियां अंतर्विष्ट करने वाला लिखित कथन वाद की प्रथम सुनवाई पर संस्थित कर सकेगा, किंतु तत्पश्चात न्यायालय की अनुमति के बिना संस्थित नहीं कर सकेगा।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय --
(1) वाद पत्र में अंकित किए गए कथनों का प्रतिवादी की ओर से साफ और स्पष्ट रूप से इनकार किया जाना चाहिए। प्रतिवादी के लिए सिर्फ यह लिखना की स्वीकार नहीं है, पर्याप्त नहीं होगा।
1957 एआईआर (मध्य प्रदेश) 179
(2) आदेश 8 नियम 1-- लिखित कथन पेश करने का अधिकार बंद किया-- लिखित कथन पेश करने हेतु समय बढ़ाने हेतु प्रार्थना पत्र पेश किया-- एक प्रतिवादिया जो कि वर्द्ध महिला थी, बीमार थी और लिखित कथन पेश करने में विलंब हुआ-- बीमारी के समर्थन में दस्तावेज पेश नहीं किया-- आदेश में अवैधता नहीं तथापि लिखित कथन पेश करने से इनकार करना याची के लिए थोड़ा सा कष्ट दायक होगा-- निर्णित, पहले ही पेश किया गया जवाब दावा रु 5000 खर्च पर रिकॉर्ड पर लिया जावे।
2016 ( 2) DNJ (Raj.) 762
(3) आदेश 8 नियम 1-- जवाब दावा बंद किया गया -- मामले में विवादापस्त बिंदु अंतर्गस्त है-- ग्राम पंचायत में सूचित किया कि वादी के पिता को पट्टा जारी नहीं किया -- तत्पश्चात वादी अपने वाद पत्र में संशोधन किया-- निर्णित, 15 दिन की अवधि के भीतर याचि को रूपए 1000 खर्च पर जवाब दावा पेश करने के लिए अनुमति देने का विचारण न्यायालय को निर्देश दिया गया।
2015 (3)DNJ (Raj.) 1113
(4) आदेश 8 नियम ( ए ) (3)-- विशेषज्ञ की रिपोर्ट दिनांक 12.11. 2013 को रिकॉर्ड पर लेने हेतु प्रार्थना पत्र पेश किया-- विवाद्यक विरचित करने के समय रिपोर्ट अस्तित्व में नहीं थी-- सम्यक रुप से जागरुक होने का प्रश्न लागू नहीं होता-- तनकी साबित करने का भार प्रतिवादी पर था-- हस्तलेखन विशेषज्ञ की रिपोर्ट केवल एक राय है-- आदेश में क्षेत्राधिकार का की त्रुटि नहीं है--निर्णित, प्रार्थना पत्र स्वीकार करने का आदेश यथावत रखा।
2017 (1) DNJ (Raj) 380
(5) आदेश 8 नियम (1) ए (3)-- रिकॉर्ड पर दस्तावेज लेने हेतु प्रार्थना पत्र खारिज किया-- प्रार्थी गण ने जवाबदावा पेश किया तथा वादी 'जी' का बयान बहुत बाद में अभिलिखित हुआ-- यह नहीं कहा जा सकता कि याचीगण वाद पेश करने से भिज्ञ नहीं थे -- विलंब के लिए उचित स्पष्टीकरण नहीं--निर्णित, विचारण न्यायालय ने अपना पत्र खारिज करने में कोई त्रुटि नहीं की है।
2016 (3) DNJ (Raj) 1145
(6) आदेश 8 नियम 1, धारा 151 -- दस्तावेज अभिलेख पर लेना-- विवाद विनिश्चित करने हेतु दस्तावेज की कोई सुसंगतता नहीं-- बात का उल्लेख नहीं की वह दस्तावेज जानकारी में कब आया और इतने विलंब से क्यों पेश किया-- प्रार्थना पत्र खारिज हुआ-- उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की व्याप्ति-- अभी निर्धारित-- दस्तावेज की किसी भी प्रकार की सुसंगतता की दशा में उसे अभिलेख पर लिया जा सकता है-- प्रयवेक्षणीय अधिकारिता के तहत उत्प्रेक्षण याचिका जारी करने की शक्ति का प्रयोग परमितता से करना होता है और वह भी केवल समुचित मामला में जहां उच्च न्यायालय का न्यायिक अंतकरण उसे कार्यवाही करने की आज्ञा देता है अन्यथा न्याय की स्थूल विफलता या गंभीर अन्याय हो सकता है।
2008 (2) DNJ (Raj) 923
(7) आदेश 8 नियम 1 (क) (3)-- बेदखली के मामले में अतिरिक्त दस्तावेज पेश करने हेतु आवेदन पेश किया गया। निजी एवं वास्तविक आवश्यकता साक्षी पूर्ण होने पर मामला अंतिम बहस हेतु नियत था। प्रार्थना पत्र खारिज किया गया। अभिनिर्धारित -- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 में संशोधन के पश्चात वर्ष 2002 से परंतुक कि अंत स्थापना के पश्चात विचारण न्यायालय द्वारा पारित अंतर्वर्ती आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय नहीं-- उक्त दस्तावेज सुसंगत नहीं थे और जानबूझकर अंतिम समय में विचारण में विलंब करने की दृष्टि से पेश किए गए। पुनरीक्षण खारिज।
2009 (1) ,RLW 140
(8) आदेश 8 नियम 5 -- प्रकथन स्वीकार किए हुए प्रतीत होना-- वाद पत्र में किए गए प्रकथन लिखित कथन में गमन नहीं करते-- अभिनिर्धारित-- उसे स्वीकार किया हुआ माना जाएगा।
2009 (3)DNJ (SC) 1069
(9) आदेश 8 नियम 9 -- जवाब दावा के पैरा 4 में किए गए कथनों का जवाबबूल जवाब पेश करने हेतु पेश किया गया आवेदन खारिज किया गया -- जवाब दावा में कुछ भी नया नहीं, और जवाबबूल जवाब पेश करना आवश्यक नहीं-निर्णित, प्रार्थना पत्र खारिज करने में विचारण न्यायालय न्याय संगत था।
2016 (3) DNJ (Raj) 1166
(10) आदेश 8 नियम 10 एवं धारा 151-- रिकॉर्ड से जवाब दावा हटाने हेतु प्रार्थना पत्र स्वीकार किया गया-- निर्धारित परिसीमा में जवाब दावा पेश नहीं किया और वादी ने काउंटर क्लेम का जवाब पेश करने के लिए समय चाहा और कोई आपत्ति नहीं उठाई-- आपत्ति उठाने हेतु वादी ने अधिकार का परित्याग किया-- जैसे ही जवाब दावा रिकॉर्ड पर लिया गया विचारण न्यायालय ने विलंब माफ किया -- विलंब शमन हेतू औपचारिक प्रार्थना पत्र पेश करना आवश्यक नहीं -- शक्ति निर्देशात्मक है-- आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत प्रार्थना पत्र को निर्णित किए बिना आदेश 8 नियम 10 के अंतर्गत प्रार्थना पत्र स्वीकार करना न्याय संगत नहीं है-- आलोच्य आदेश नॉन स्पीकिंग है--निर्णित, आदेश रद्द व अपास्त किया।
2016 (4) DNJ (Raj) 1671
(11) आदेश 8 नियम 1 -- जवाब दावा पेश करने में विलंब-- न्यायालय स्वयं ने जवाब दावा पेश करने हेतू 97 दिन का समय दिया -- नियत समय से विचारण न्यायालय विचलित हुआ--निर्णित, जवाब दावा पेश करने हेतु एक अवसर और दिया।
2010 (3) DNJ (Raj) 1334
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