Section 13 (B)(2) Of Hindu Marriage Act For Divorce By Mutual Consent Not Mandatory:
हिंदू विवाह अधिनियम 13 (बी )(2) पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद में उपबंध आज्ञात्मक नहीं :
धारा 13- (बी) में प्रावधान किया गया है कि यदि पति-पत्नी एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे हैं तो वे यह कहते हुए जिला न्यायालय अथवा परिवार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं कि वे एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे है, उन का एक साथ निवास करना असंभव है और उन में सहमति हो गई है कि विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर विवाह को समाप्त कर दिया जाए।
प्रारंभिक हिन्दू विधि में तलाक या विवाह विच्छेद की कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं थी। हिन्दू विधि में विवाह एक बार हो जाने के बाद उसे खंडित नहीं किया जा सकता था। विवाह विच्छेद की अवधारणा पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 से हिन्दू विधि में सम्मिलित हुई। वर्तमान में हिन्दू विवाह को केवल उन्हीं आधारों पर विखंडित किया जा सकता है
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हिन्दू विवाह अधिनियम में इस बाबत निम्न प्रकार से व्यवस्था की गई है --
13 - (ख)पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद-
(1) इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए या दोनों पक्षकार मिलकर विवाह-विच्छेद की डिक्री विवाह के विघटन के लिए अर्जी जिला न्यायालय में, चाहे ऐसा विवाह, विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित किया गया हो चाहे उसके पश्चात् इस आधार पर पेश कर सकेंगे कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं तथा वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गये हैं कि विवाह विघटित कर देना चाहिये।
(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट अर्जी के उपस्थापित किये जाने की तारीख से छ: मास के पश्चात् और अठारह मास के भीतर दोनों पक्षकारों द्वारा किये गये प्रस्ताव पर, यदि इस बीच अजीं वापिस नहीं ले ली गई हो तो न्यायालय पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और ऐसी जाँच, जैसी वह ठीक समझे, करने के पश्चात् अपना यह समाधान कर लेने पर कि विवाह अनुष्ठापित हुआ है और अर्जी में किये गये प्रकाशन सही हैं यह घोषणा करने वाली डिक्री पारित करेगा कि विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा।
धारा 13 बी (1) न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से संबंधित है और याचिका केवल तब योग्य है जब पार्टियां एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए अलग रहती हैं और यदि वे एक साथ रहना नहीं चाहते हैं और सहमति देते हैं कि शादी भंग हो जाती है। धारा 13 बी (2) प्रक्रियात्मक है उन्होंने कहा कि इस अवधि को माफ़ करने का विवेक न्याय के हित के विचार से एक निर्देशित विवेक है, जहां सुलह करने का कोई मौका नहीं है और पार्टियां पहले से ही धारा 13 बी में उल्लेखित अवधि से अधिक लंबी अवधि के लिए अलग-थलग हो चुकी हैं।
इस प्रकार, न्यायालय को निम्न पर भी विचार करना चाहिए:
1 कब पार्टियों की शादी हुई है?
( ii) कब से मुकदमेबाजी लंबित है?
iii) वे कितनी समय से अलग रह रहे थे?
iv) क्या पक्षकारो के बीच कोई अन्य कार्यवाही लम्बित है?
v) क्या पक्षकारो ने मध्यस्थता / सुलह में भाग लिया है?
vi) क्या पार्टियों को वास्तविक निपटारे पर पहुंचाया गया है, जो कि पोषण की देखभाल, बच्चे की हिरासत या पार्टियों के बीच किसी अन्य लंबित मुद्दों का ध्यान रखता है?
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न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिए कि पार्टियां वैधानिक अवधि से अधिक के लिए अलग-अलग रह रही हैं और मध्यस्थता और सुलह के सभी प्रयासों की कोशिश की गई है और विफल रहे हैं और सुलह की कोई संभावना नहीं है और आगे की प्रतीक्षा अवधि केवल उनके पीड़ा को बढ़ाएगी।
जैसा कि परंपरागत हिंदू कानून के तहत, जैसा कि यह बिंदु पर वैधानिक कानून से पहले खड़ा था, शादी एक संस्कार है और सहमति से भंग नहीं हो सकती। इस कानून ने वैधानिक आधार पर विवाह को भंग करने के लिए अदालत को सक्षम किया। वर्ष 1 9 76 में संशोधन के माध्यम से, आपसी सहमति से तलाक की अवधारणा शुरू की गई थी। तथापि,
धारा 13 बी (2) में पारस्परिक सहमति से तलाक की याचिका दाखिल करने के छह महीने से पहले तलाक देने के लिए एक बार होता है। उक्त अवधि निर्धारित की गई ताकि दलों को पुनर्विचार करने में सक्षम बनाया जा सके ताकि अदालत ने आपसी सहमति से तलाक दे दिया हो, अगर सुलह के लिए कोई मौका नहीं है।
इस प्रावधान का उद्देश्य पार्टियों को सहमति से शादी विघटित करने के लिए सक्षम होना है, यदि शादी में विराम टूट गया है और उन्हें उपलब्ध विकल्पों के अनुसार पुनर्वास के लिए सक्षम किया जा सकता है। संशोधन इस विचार से प्रेरित था कि अनिच्छुक साझेदारों के बीच विवाहित होने की स्थिति का जबरन कायम होना किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता था। इस अवधि को ठंडा करने का उद्देश्य जल्दबाजी के फैसले के खिलाफ रक्षा करना था, यदि अन्यथा मतभेद सुलझने की संभावना थी। जब कोई सामंजस्य होने का कोई मौका नहीं था, तो उद्देश्य एक व्यर्थ विवाह को कायम रखने या पार्टियों की पीड़ा को लम्बा नहीं करना था। यद्यपि विवाह को बचाने के लिए हर प्रयास किया जाना चाहिए, अगर पुनर्मिलन की कोई संभावना नहीं है और ताजा पुनर्वास की संभावनाएं हैं, तो अदालतों को बेहतर विकल्पों के लिए पार्टियों को सहमत करने का प्रयास कर पुनर्वास करवाना चाहिए।
धारा 13 (बी) -पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद का आवेदन समय पूर्व पेश किया गया -9.7.2011 को विवाह हुआ और 24.1.12 ,को याचिका पेश की --पक्षकारो के बयान 15.1.13 को अभिलिखित किये गए।पक्षकार 13.7.11 से पृथक रह रहे हैं -निर्णीत -विवाह विघटन किया गया।
2014 (3) DNJ (Raj.)1172
धारा 13 (बी)(2) --इस धारा के प्रावधान आज्ञात्मक नहीं है और यह निर्देशात्मक है।
2014 (1) DNJ (Raj.)362
धारा 13 (बी)(2)--धारा 13 (बी)(2)के द्वारा वांछित 6 माह की प्रतीक्षा अवधि की अपेक्षाए आज्ञात्मक नहीं है तथा निर्देशात्मक है और न्यायलय इस अवधि से छूट प्रदान कर सकते है।
2009 (1)DNJ(Raj.)141 "D. B.
इस बिंदु पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा विवादित विचार थे हालांकि यह अंजना किशोर बनाम पुनीत किशोर (2002) 10 एससीसी 194 में इस अवधि को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग में सुप्रीम कोर्ट द्वारा माफ़ किया जा सकता है,यह मत प्रकट किया गया इसके विपरीत
मनीष गोयल बनाम रोहिणी गोयल (2010) 4 एससीसी 393, जिसमें यह माना गया था कि अनुच्छेद 142 को वैधानिक स्तिथि के विपरीत प्रयोग मे नहीं लाया जा सकता। हालांकि इस मामले को विवाद सुलझाने के लिए larger बेंच के समक्ष भेजा गया था, इस बीच इस मुद्दे पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि इस दौरान पार्टियों को तलाक मिला था। हाल ही में 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत प्रतीक्षा अवधि को माफ़ कर दिया था।
लेकिन यह मुद्दा यह है कि पारिवारिक न्यायालय इस अवधि को माफ कर सकते हैं, इससे पहले किसी भी फैसले में नहीं माना गया था न्यायालय द्वारा पेश किए गए मामले में, जीवन साथी आठ साल से अलग रह रहे थे, और प्रतीक्षा अवधि से कुछ भी नहीं निकलगा, विवाहित होने से विवादास्पद रूप से टूटा हुआ हो। इसने न्यायालय को इस मुद्दे से निपटने के लिए कहा, एमीस क्यूरी के वरिष्ठ वकील के वी विश्वनाथन की सहायता से
कोर्ट ने यह माना कि धारा 13 बी (2) में उल्लिखित अवधि आज्ञात्मक नहीं थी, लेकिन वह निर्देशात्मक है। यह प्रत्येक मामले की तथ्यों और परिस्थितियों में अपने विवेक का पालन करने के लिए न्यायालय के लिए स्वतन्त्र है। जहां पक्षकारो में पुनर्वास की कोई संभावना नहीं थी। और वैकल्पिक पुनर्वास की संभावनाएं हैं।
यह माना जाता था कि जहां मामला से निपटने वाले न्यायालय को संतुष्ट किया गया था कि धारा 13 बी (2) के तहत वैधानिक अवधि को छूट प्रदान करने के लिए मामला बना दिया गया था, यह निम्नलिखित पर विचार करने के बाद ऐसा कर सकता है:
1. धारा 13 बी (2) में विनिर्दिष्ट छः महीने की सांविधिक अवधि, पक्षकारो के अलग होने की धारा 13 बी (1) के तहत एक साल की वैधानिक अवधि के अलावा पहले से ही खत्म हो चुका है;
2. पक्षकारो के पुनर्मिलन के लिए पारिवारिक न्यायालयों के अधिनियम / धारा 9 के आदेश XXXIIA नियम 3 सीपीसी / धारा 23 (2) के संदर्भ में प्रयासों सहित मध्यस्थता / सुलहता के लिए सभी प्रयास विफल हुए और इसमें सफलता की कोई संभावना नहीं है आगे के प्रयासों से दिशा;
3. पक्षकारो ने सचमुच, पोषण, बच्चे की हिरासत या पार्टियों के बीच किसी भी लंबित मुद्दों सहित उनके मतभेदों को सही तरीके से तय किया है;
4. प्रतीक्षा अवधि केवल उनकी पीड़ा को बढ़ाएगी
अभी हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सिविल अपील संख्या 11158/2017
अमरदीप सिंह --अपिलांट
बनाम
हरवींन कौर --रेस्पोडेन्ट
में मत व्यक्त कर उच्चतम न्यायालय व विभिन्न उच्च न्यायालय के निर्णयों में मत भेद समाप्त कर दिये हैं।आपकी सुविधा के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय दिया जा रहा है।धारा 13( बी)(2) ,बाबत दिये महत्वपूर्ण निर्णयों का विवेचन किया गया है। --
IN THE SUPREME COURT OF INDIA CIVIL APPELLATE JURISDICTION CIVIL APPEAL NO. 11158 OF 2017
(Arising out of Special Leave Petition (Civil)No. 20184 of 2017)
Amardeep Singh …Appellant Versus
Harveen Kaur …Respondent JUDGMENT
ADARSH KUMAR GOEL, J.
1. The question which arises for consideration in this appeal is whether the minimum period of six months stipulated under Section 13B(2) of the Hindu Marriage Act, 1955 (the Act) for a motion for passing decree of divorce on the basis of mutual consent is mandatory or can be relaxed in any exceptional situations.
Signature Not Verified Digitally signed by SWETA DHYANI Date: 2017.09.12 16:23:52 IST Reason:
2. Factual matrix giving rise to this appeal is that marriage between the parties took place on 16 th January, 1994 at Delhi. Two children were born in 1995 and 2003 respectively. Since 2008 the parties are living separately. Disputes between the parties gave rise to civil and criminal proceedings. Finally, on 28 th April, 2017 a settlement was arrived at to resolve all the disputes and seeks divorce by mutual consent. The respondent wife is to be given permanent alimony of Rs.2.75 crores. Accordingly, HMA No. 1059 of 2017 was filed before the Family Court (West), Tis Hazari Court, New Delhi and on 8 th May, 2017 statements of the parties were recorded. The appellant husband has also handed over two cheques of Rs.50,00,000/-, which have been duly honoured, towards part payment of permanent alimony. Custody of the children is to be with the appellant. They have sought waiver of the period of six months for the second motion on the ground that they have been living separately for the last more than eight years and there is no possibility of their re union. Any delay will affect the chances of their resettlement. The parties have moved this Court on the ground that only this Court can relax the six months period as per decisions of this Court.
3. Reliance has been placed inter alia on decision of this Court in Nikhil Kumar vs. Rupali Kumar 1 wherein the statutory period of six months was waived by this Court under Article 142 of the Constitution and the marriage was dissolved.
The text of Section 13B is as follows:
“13-B. Divorce by mutual consent.— (1) Subject to the provisions of this Act a petition for dissolution of marriage by a decree of divorce may be presented to the district court by both the parties to a marriage together, whether such marriage was solemnized before or after the commencement of the Marriage Laws (Amendment) Act , 1976, on the ground that they have been living separately for a period of one year or more, that they have not been able to live together and that they have mutually agreed that the marriage should be dissolved.
(2) On the motion of both the parties made not earlier than six months after the date of the presentation of the petition referred to in sub-section (1) and not later than eighteen months after the said date, if the petition is not withdrawn in the meantime, the court shall, on being satisfied, after hearing the parties and after making such inquiry as it thinks fit, that a marriage has been solemnized and that the averments in the petition are true, pass a decree of divorce declaring the marriage to be dissolved with effect from the date of the decree.”
4. There is conflict of decisions of this Court on the question whether exercise of power under Article 142 to waive the statutory period under Section 13B of the Act was appropriate. In 1 (2016) 13 SCC 383 Manish Goel versus Rohini Goel2, a Bench of two-Judges of this Court held that jurisdiction of this Court under Article 142 could not be used to waive the statutory period of six months for filing the second motion under
Section 13B , as doing so will be passing an order in contravention of a statutory provision. It was observed :
“14. Generally, no court has competence to issue a direction contrary to law nor can the court direct an authority to act in contravention of the statutory provisions. The courts are meant to enforce the rule of law and not to pass the orders or directions which are contrary to what has been injected by law. ( Vide State of Punjab v. Renuka Singla [(1994) 1 SCC 175], State of U.P. v. Harish Chandra [(1996) 9 SCC 309],
Union of India v. Kirloskar Pneumatic Co. Ltd . [(1996) 4 SCC 453], University of Allahabad v. Dr. Anand Prakash Mishra [(1997) 10 SCC 264] and Karnataka SRTC v. Ashrafulla Khan [(2002) 2 SC 560]
15. A Constitution Bench of this Court in
Prem Chand Garg v. Excise Commr .[AIR 1963 SCC 996] held as under: (AIR p. 1002, para 12) “12. … An order which this Court can make in order to do complete justice between the parties, must not only be consistent with the fundamental rights guaranteed by the Constitution, but it cannot even be inconsistent with the substantive provisions of the relevant statutory laws.” (emphasis supplied) The Constitution Benches of this Court in Supreme Court Bar Assn. v. Union of India [(1998) 4 SCC 409] and E.S.P.
Rajaram v. Union of India [(2001) 2 SCC 186] held that under Article 142 of the Constitution, this Court cannot altogether ignore the substantive provisions of a statute and pass orders concerning an issue which can be settled only 2 (2010) 4 SCC 393 through a mechanism prescribed in another statute. It is not to be exercised in a case where there is no basis in law which can form an edifice for building up a superstructure.”
5. This Court noted that power under
Article 142 had been exercised in cases where the Court found the marriage to be totally unworkable, emotionally dead, beyond salvage and broken down irretrievably. This power was also exercised to put quietus to all litigations and to save the parties from further agony 3. This view was reiterated in Poonam versus Sumit Tanwar4.
6. In Neeti Malviya versus Rakesh Malviya5, this Court observed that there was conflict of decisions in Manish Goel (supra) and Anjana Kishore versus Puneet Kishore6. The matter was referred to bench of three-Judges. However, since the matter became infructuous on account of grant of divorce in the meanwhile7.
3 Para 11 ibid, noting earlier decisions in Romesh Chander v. Savitri (1995) 2 SCC 7; Kanchan Devi v. Promod Kumar Mittal (1996) 8 SCC 90; Anita Sabharwal v. Anil Sabharwal (1997) 11 SCC 490;
Ashok Hurra v. Rupa Bipin Zaveri (1997) 4 SCC 226; Kiran v. Sharad Dutt (2000)10 SCC 243; Swati Verma v. Rajan Verma (2004) 1 SCC 123; Harpit Singh Anand v. State of W.B . (2004) 10 SCC 505; Jimmy Sudarshan Purohit v. Sudarshan Sharad Purohit (2005) 13 SCC 410; Durga Prasanna Tripathy v. Arundhati Tripathy (2005) 7 SCC 353; Naveen Kohli v. Neelu Kohli (2006) 4 SCC 558; Sanghamitra Ghosh v. Kajal Kumar Ghosh (2007) 2 SCC 220; Rishikesh Sharma v. Saroj Sharma (2007) 2 SCC 263; Samar Ghosh v. Jaya Ghosh (2007) 4 SCC 511 and
Satish Sitole v. Ganga (2008) 7 SCC 734 4 (2010) 4 SCC 460 5 (2010) 6 SCC 413 6 (2002) 10 SCC 194 7 Order dated 23rd August, 2011 in Transfer Petition (Civil)No. 899 of 2007
7. Without any reference to the judgment in Manish Goel (supra), power under Article 142 of the Constitution has been exercised by this Court in number of cases 8 even after the said judgment.
8. We find that in Anjana Kishore (supra), this Court was dealing with a transfer petition and the parties reached a settlement. This Court waived the six months period under Article 142 in the facts and circumstances of the case. In Anil Kumar Jain versus Maya Jain9, one of the parties withdrew the consent. This Court held that marriage had irretrievably broken down and though the civil courts and the High Court could not exercise power contrary to the statutory provisions, this Court under
Article 142 could exercise such power in the interests of justice. Accordingly the decree for divorce was granted. 8
Priyanka Singh v. Jayant Singh (2010) 15 SCC 390; Sarita Singh v. Rajeshwar Singh (2010) 15 SCC 374; Harpreet Singh Popli v. Manmeet Kaur Pople (2010) 15 SCC 316; Hitesh Bhatnagar v. Deepa Bhatnagar (2011) 5 SCC 234; Veena v. State (Govt of NCT of Delhi) (2011) 14 SCC 614; Priyanka Khanna v. Amit Khanna (2011) 15 SCC 612; Devinder Singh Narula v. Meenakshi Nangia (2012) 8 SCC 580; Vimi Vinod Chopra v. Vinod Gulshan Chpra (2013) 15 SCC 547;
Priyanka Chawla v. Amit Chawla (2016) 3 SCC 126; Nikhil Kumar v. Rupali Kumar (2016) 13 SCC 383 9 (2009) 10 SCC 415
9. After considering the above decisions, we are of the view that since Manish Goel (supra) holds the field, in absence of contrary decisions by a larger Bench, power under Article 142 of the Constitution cannot be exercised contrary to the statutory provisions, especially when no proceedings are pending before this Court and this Court is approached only for the purpose of waiver of the statute.
10. However, we find that the question whether Section 13B(2) is to be read as mandatory or discretionary needs to be gone into. In Manish Goel (supra), this question was not gone into as it was not raised. This Court observed :
“23. The learned counsel for the petitioner is not able to advance arguments on the issue as to whether, statutory period prescribed under Section 13-B(1) of the Act is mandatory or directory and if directory, whether could be dispensed with even by the High Court in exercise of its writ/appellate jurisdiction.”
11. Accordingly, vide order dated 18th August, 2017, we passed the following order :
“List the matter on 23rd August, 2017 to consider the question whether provision of Section 13B of the Hindu Marriage, Act, 1955 laying down cooling off period of six months is a mandatory requirement or it is open to the Family Court to waive the same having regard to the interest of justice in an individual case.
Mr. K.V. Vishwanathan, senior counsel is appointed as Amicus to assist the Court. Registry to furnish copy of necessary papers to learned Amicus”.
12. Accordingly, learned amicus curiae has assisted the Court. We record our gratitude for the valuable assistance rendered by learned amicus who has been ably assisted by S/Shri Abhishek Kaushik, Vrinda Bhandari and Mukunda Rao Angara, Advocates.
13. Learned amicus submitted that waiting period enshrined under Section 13(B)2 of the Act is directory and can be waived by the court where proceedings are pending, in exceptional situations. This view is supported by judgments of the Andhra Pradesh High Court in K. Omprakash vs. K. Nalini 10, Karnataka High Court in Roopa Reddy vs. Prabhakar Reddy11 , Delhi High Court in
Dhanjit Vadra vs. Smt. Beena Vadra12 and Madhya Pradesh High Court in
Dinesh Kumar Shukla vs. Smt. Neeta13 . Contrary view has been taken by Kerala High Court in M. Krishna Preetha vs. Dr. Jayan 10 AIR 1986 AP 167 (DB) 11 AIR 1994 Kar 12 (DB) 12 AIR 1990 Del 146 13 AIR 2005 MP 106 (DB)
Moorkkanatt14. It was submitted that
Section 13B(1) relates to jurisdiction of the Court and the petition is maintainable only if the parties are living separately for a period of one year or more and if they have not been able to live together and have agreed that the marriage be dissolved. Section 13B(2) is procedural. He submitted that the discretion to waive the period is a guided discretion by consideration of interest of justice where there is no chance of reconciliation and parties were already separated for a longer period or contesting proceedings for a period longer than the period mentioned in Section 13B(2) . Thus, the Court should consider the questions:
i) How long parties have been married?
ii) How long litigation is pending?
iii) How long they have been staying apart?
iv) Are there any other proceedings between the parties?
v) Have the parties attended mediation/conciliation?
vi) Have the parties arrived at genuine settlement which takes care of alimony, custody of child or any other pending issues between the parties?
14 AIR 2010 Ker 157
14. The Court must be satisfied that the parties were living separately for more than the statutory period and all efforts at mediation and reconciliation have been tried and have failed and there is no chance of reconciliation and further waiting period will only prolong their agony.
15. We have given due consideration to the issue involved. Under the traditional Hindu Law, as it stood prior to the statutory law on the point, marriage is a sacrament and cannot be dissolved by consent. The Act enabled the court to dissolve marriage on statutory grounds. By way of amendment in the year 1976, the concept of divorce by mutual consent was introduced. However,
Section 13B(2) contains a bar to divorce being granted before six months of time elapsing after filing of the divorce petition by mutual consent. The said period was laid down to enable the parties to have a rethink so that the court grants divorce by mutual consent only if there is no chance for reconciliation.
16. The object of the provision is to enable the parties to dissolve a marriage by consent if the marriage has irretrievably broken down and to enable them to rehabilitate them as per available options. The amendment was inspired by the thought that forcible perpetuation of status of matrimony between unwilling partners did not serve any purpose. The object of the cooling off the period was to safeguard against a hurried decision if there was otherwise possibility of differences being reconciled. The object was not to perpetuate a purposeless marriage or to prolong the agony of the parties when there was no chance of reconciliation. Though every effort has to be made to save a marriage, if there are no chances of reunion and there are chances of fresh rehabilitation, the Court should not be powerless in enabling the parties to have a better option.
17. In determining the question whether provision is mandatory or directory, language alone is not always decisive. The Court has to have the regard to the context, the subject matter and the object of the provision. This principle, as formulated in Justice G.P. Singh’s “Principles of Statutory Interpretation” (9th Edn., 2004), has been cited with approval in Kailash versus Nanhku and ors.15as follows:
15 (2005) 4 SCC 480 “The study of numerous cases on this topic does not lead to formulation of any universal rule except this that language alone most often is not decisive, and regard must be had to the context, subject-matter and object of the statutory provision in question, in determining whether the same is mandatory or directory. In an oft-quoted passage Lord Campbell said: ‘No universal rule can be laid down as to whether mandatory enactments shall be considered directory only or obligatory with an implied nullification for disobedience. It is the duty of courts of justice to try to get at the real intention of the legislature by carefully attending to the whole scope of the statute to be considered.’ “ ‘For ascertaining the real intention of the legislature’, points out Subbarao, J. ‘the court may consider inter alia, the nature and design of the statute, and the consequences which would follow from construing it the one way or the other; the impact of other provisions whereby the necessity of complying with the provisions in question is avoided; the circumstances, namely, that the statute provides for a contingency of the non-compliance with the provisions; the fact that the non-compliance with the provisions is or is not visited by some penalty; the serious or the trivial consequences, that flow therefrom; and above all, whether the object of the legislation will be defeated or furthered’. If object of the enactment will be defeated by holding the same directory, it will be construed as mandatory, whereas if by holding it mandatory serious general inconvenience will be created to innocent persons without very much furthering the object of enactment, the same will be construed as directory.”
18. Applying the above to the present situation, we are of the view that where the Court dealing with a matter is
satisfied that a case is made out to waive the statutory period under Section 13B(2) , it can do so after considering the following :
i) the statutory period of six months specified in Section 13B(2) , in addition to the statutory period of one year under
Section 13B(1) of separation of parties is already over before the first motion itself;
ii) all efforts for mediation/conciliation including efforts in terms of Order XXXIIA Rule 3 CPC/Section 23(2) of the Act/ Section 9 of the Family Courts Act to reunite the parties have failed and there is no likelihood of success in that direction by any further efforts;
iii) the parties have genuinely settled their differences including alimony, custody of child or any other pending issues between the parties;
iv) the waiting period will only prolong their agony.
19. The waiver application can be filed one week after the first motion giving reasons for the prayer for waiver.
20. If the above conditions are satisfied, the waiver of the waiting period for the second motion will be in the discretion of the concerned Court.
21. Since we are of the view that the period mentioned in Section 13B(2) is not mandatory but directory, it will be open to the Court to exercise its discretion in the facts and circumstances of each case where there is no possibility of parties resuming cohabitation and there are chances of alternative rehabilitation.
22. Needless to say that in conducting such proceedings the Court can also use the medium of video conferencing and also permit genuine representation of the parties through close relations such as parents or siblings where the parties are unable to appear in person for any just and valid reason as may satisfy the Court, to advance the interest of justice.
23. The parties are now at liberty to move the concerned court for fresh consideration in the light of this order.
The appeal is disposed of accordingly.
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