Sec. 11 C.P.C. Res-Judicataधारा 11सी.पी.सी.- पूर्व न्याय
न्याय प्रशासन मे वाद की रचना करना महत्वपूर्ण हैं। इसमे वाद की
बहुलता (multiplicity of
suit) को रोकना एक आवश्यक तत्व हैं। इसे रोकने के लिए संहिता मे विविध प्रावधान किए गए हैं।
जेसे -
1 विचाराधीन न्याय (res - subjudice ) धारा 10 cpc ,
2 पूर्व न्याय (res - judicata ) धारा 11cpc ,
3 अपर वाद का वर्जन (bar to furthersuit ) धारा12 cpc , आदि का प्रावधान किया गया हैं। सहिंता आदेश 2 मे वाद की रचना की व्यवस्था की गई हैं। उपरोक्त धाराओ में न्यायिक प्रक्रिया में पूर्व न्याय का सिद्धांत अति महत्वपूर्ण होने से सहिंता में धारा11में इसका समावेश किया गया हैं |यह प्रावधान अति महत्वपूर्ण है जिसका विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।
1 विचाराधीन न्याय (res - subjudice ) धारा 10 cpc ,
2 पूर्व न्याय (res - judicata ) धारा 11cpc ,
3 अपर वाद का वर्जन (bar to furthersuit ) धारा12 cpc , आदि का प्रावधान किया गया हैं। सहिंता आदेश 2 मे वाद की रचना की व्यवस्था की गई हैं। उपरोक्त धाराओ में न्यायिक प्रक्रिया में पूर्व न्याय का सिद्धांत अति महत्वपूर्ण होने से सहिंता में धारा11में इसका समावेश किया गया हैं |यह प्रावधान अति महत्वपूर्ण है जिसका विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।
धारा 11 सी.पी.सी. - पूर्व न्याय
कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नही करेगा जिसमे
प्रत्यक्षतः या सारतः ( directly
or substantially ) विवाद्ध-विषय उसी हक़
के अधीन मुकदमा करने वाले उन्ही पक्षकारो के बिच के या ऐसे पक्षकारो के बिच के,
जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनसे कोई वाद करते हैं, किसी पूर्ववती वाद
में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षतः और सारतः
विवाद रहा हैं, जो ऐसे पश्चात्वर्ती वाद का या उस वाद का जिसमे ऐसा विवाध्यक वाद
में उठाया गया हैं, विचारण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा
चूका हैं और अंतिम रूप से निर्णित किया जा चूका हैं ।
उपरोक्त धारा के बारे में सीधे अर्थो में यह कहा जा सकता हैं की कोई भी
न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिंदु का विचारण नही करेगा जिसमे वाद पद में वह
विषय उन्ही पक्षकारो के मध्य अथवा उन पक्षकारो के मध्य जिनके अधीन वे अथवा कोई उसी
हक के अंतर्गत उसी विषय बाबत दावा प्रस्तुत करता हैं तब ऐसे पश्चातवर्ती वाद में
जो विवाद बिंदु उठाया गया हैं और न्यायालय विचारणमें सक्षम हैं उस विवाद बिंदु
बाबत पूर्व वाद में प्रत्यक्ष व सरवान बिंदु बाबत सुना जा चूका हो तथा अंतिम रूप
से न्यायालय द्वारा निर्णित किया जा चूका हो तो ऐसे पश्चातवर्ती वादों का विचारण धारा
11 पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार विचारण से प्रवरित करता हैं ।
इस सिद्धांत का मुख्य उद्येश्य वादों की बहुलता को रोकना हैं ।
सीधे अर्थो में हम यह कह सकते हैं कि उन्ही पक्षकारो के बिच किसी
विवाद विषय-वस्तु का कोई निष्पादन योग्य निर्णय हो जाने के बाद उन्ही पक्षकारो के
बिच उसी विवाद बाबत नये वाद के विचारण को रोकना हैं |
इस धारा में इसकी व्याख्या
करने के लिए 8 स्पष्टीकरण दिए गये हैं उन तमाम स्पष्टीकरण का उल्लेख न करते हुए हम इस धारा की
मंशा को विभिन्न न्यायिक द्रष्टान्तो से विवेचन करते हैं -
1) एक मामले में सर्वोच्च
न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की किसी
दस्तावेज की प्रकृति को अपीलीय न्यायालय लंबित रहने से उसे अंतिम नही माना गया - अभिनिर्धारित धारा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंते हैं ।
1998(2) DNJ S.C. 353
2) स्पष्टीकरण V||| सिमित
क्षेत्राधिकार - पहले वाद में उन्ही पक्षकारो के बिच निर्णय - अगले वाद में
बंधनकारी होगा, अगर पश्चावर्ती वाद में उठए गये मुद्दे स्पष्तः एवं सारतः वही हो -
पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु होगा ।
2000(1)DNJ(Raj.) 245
3) यदि पूर्व वाद अनुपस्थिति में ख़ारिज हुआ हो तथा
मेरिट पर निर्णित नही हुआ एवं वाद हेतुक भी भिन्न रहा हो - पूर्व न्याय का
सिद्धांत लागु नही होता हैं ।
2002 DNJ (Raj.)
910
4) किसी मामले में सिविल न्यायालय में वसीयत को धारा
68 साक्ष्य अधिनियम के अनुसार प्रयाप्त रूप से सिद्ध किया गया | राजस्व न्यायालय
में पुनः सिद्ध करने की आवश्यकता नही है पूर्व न्याय का सिद्धांत के अनुसार वसीयत
सिद्ध हुयी मानी जाएगी।
2000(2) DNJ (Raj.) 503
5) पूर्व वाद जो करार दिनांक 20/12/1976 की
विनिर्दिष्ट पालना बाबत पेश किया जो साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हुआ पश्चातवर्ती
वाद करार दिनांक 14/9/1987
.
के आधर पर पेश हुआ, पूर्व न्याय के सिद्धांत के
अनुसार प्राथना-पत्र न्यायालय द्वारा ख़ारिज किया गया | अभिनिर्धारित - दोनों वादों
में वाद हेतुक व पक्षकार तथा करार भिन्न भिन्न हैं जिससे आदेश में अधिकारिता की
त्रुटी या अवेधता नही मानी गयी।
2014(4) DNJ (Raj.)1446
6) किसी वाद में न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः या
सारतः किसी विवाद्द्यक का अंतिम निर्णय नही होने पर धरा 11 के प्रावधान आकर्षित
नही होंगे।
AIR 1990 (Bom.)
134
7) किसी रिट याचिका को बिना अधिकार सुरक्षित रखे वापस
लेने के उपरांत उसी आधार पर प्रस्तुत रिट याचिका धारा 11 के अनुसार वर्जित होंगी।
AIR 1990 (Guj.) 20
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हैं की न्यायालय वाद की कार्यवाहियों में यह धारा अत्यंत उपयोगी हैं | हम आगे भी महत्वपूर्ण उपबंधो से क़ानूनी नजीरो सहित अवगत कराते रहेंगे | आप निरंतर ब्लॉग से जुड़े रहे |
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हैं की न्यायालय वाद की कार्यवाहियों में यह धारा अत्यंत उपयोगी हैं | हम आगे भी महत्वपूर्ण उपबंधो से क़ानूनी नजीरो सहित अवगत कराते रहेंगे | आप निरंतर ब्लॉग से जुड़े रहे |
नोट :- आपकी सुविधा के लिए इस वेबसाइट का APP-APP-CIVIL LAW- GOOGLE PLAY STORE- GOOGLE PLAY STORE में अपलोड किया गया हैं जिसकी लिंक निचे दी गयी हैं | आप इसे अपने फ़ोन में डाउनलोड करके ब्लॉग से जुड़े रहे |
APP-CIVIL LAW- GOOGLE PLAY STORE
APP-CIVIL LAW- GOOGLE PLAY STORE
क्या 11 सी पी सी के प्रावधान प्रार्थना पत्र पर लागू नहीं होते ?
ReplyDelete