Reference to High Court (Section 113 C.P.C.
उच्च न्यायालय को निर्देश - धारा 113 सी.पी.सी.
न्यायालय को विधि के अनुसार अपना निर्णय देना होता है। न्यायालय विधि से बाध्य होते हैं। फिर विधि चाहे कितनी भी कठोर क्यों ना हो, न्यायालय विधि से परे नहीं जा सकते हैं। यदि किसी मामले में विधि की वैधानिकता के बारे में चाहे वह प्रथागत विधि हो, अधिनियम, अध्यादेश, आदि के रूप में अन्य कोई विधि, कोई प्रश्न अथवा उस संबंध में कोई संदेह उत्पन्न हो जाए तो वाद के अंतिम निपटारे के पूर्व उसका समाधान आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो इससे न्याय के सिद्धांत विफल हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। इसी कारण संहिता में "निर्देश" Reference) की आवश्यक व्यवस्था की गई है। संहिता की धारा 113 इस प्रकार उपबंधित की गई है - -
धारा 113 सिविल प्रक्रिया संहिता - उच्च न्यायालय को निर्देश - उन शर्तो और परिसीमाओ के अधीन रहते हुए, जो विहित की जाए, कोई भी न्यायालय मामले का कथन करके उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित कर सकेगा और उच्च न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे;
परंतु जहां न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके समक्ष लंबित मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम अथवा किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम मैं अंतर्विष्ट किसी उपबंध कि विधिमान्यता के बारे में ऐसा प्रश्न अंतरवलीत है, जिसका अवधारण उस मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है और उसकी यह राय है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश, विनियम या उपबंध अविधिमान्य या अपरिवर्तनशील है, किंतु उस उच्च न्यायालय द्वारा जिसके वह न्यायालय अधिनस्थ है, या उच्चतम न्यायालय द्वारा इस प्रकार घोषित नहीं किया गया है, वहां न्यायालय अपनी राय और उसके कारणों को ऊपवर्णित करते हुए मामले का कथन करेगा और उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित करेगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा में "विनियम" बंगाल, मुंबई या मद्रास संहिता का कोई भी विनियम या साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) मैं या किसी राज्य के साधारण खंड अधिनियम में परिभाषित कोई भी विनियम अभिप्रेत है।
आदेश 46 नियम 6 के अनुसार -जहां की निर्णय के पूर्व किसी समय वह न्यायालय में जिसमें की वादसंस्थित किया गया था यह संदेह करता है कि क्या वह वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं, वहां वह वाद की प्रकृति के बारे में संदेह के लिए अपने कारणों के कथन सहित अभिलेख को उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर सकेगा।
आदेश 46 नियम 7 के अनुसार- जहां कि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि उसका अधीनस्थ कोई न्यायालय यह गलत धारणा करने के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है या प्रसंज्ञेय नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयोग करने में असफल रहा है या ऐसे अनिहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका है, वहां वह जिला न्यायालय अभिलेख को उच्च न्यायालय के समक्ष आदेश हेतु प्रेषित कर सकेगा।
इस प्रकार कोई भी मामला निम्न अवस्थाओं में उच्च न्यायालय को उसके राय हेतु निर्दिष्ट किया जा सकता है --
(1) जहां किसी मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश अथवा विनियम की मान्यता के संबंध में कोई प्रश्न अंतर्गस्त हो।
(2) जहां किसी वाद के लघु वाद न्यायालय द्वारा
प्रसंज्ञेय होने अथवा नहीं होने के संबंध में किसी प्रकार का संदेह हो।
(3) जहां जिला न्यायालय का अधीनस्थ कोई न्यायालय इस गलत धारणा के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त करने में असफल रहा हो या ऐसे अनहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका हो।
निर्देश संबंधी प्रक्रिया आदेश 46 सिविल प्रक्रिया संहिता मैं उपबंधित की गई है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय--
(1) गोवा उच्च न्यायालय के मतानुसार केवल ऐसे ही मामलों को उच्च न्यायालय में निर्देशित किया जाएगा जिनकी डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं हो सकती हो।
1972 ए आई आर (गोवा) 3131
(2) जहां किसी वाद में पूर्ववर्ती आदेश में प्रकट दोष या कार्य लोचन मौजूद होता है तो वहां उक्त दोष या कार्य लोपन पुनर्विलोकन करने योग्य होता है।
1989 ए आई आर (बॉम्बे) 309
(3) एक मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि जहां जिला न्यायालय का अधीनस्थ कोई न्यायालय इस गलत धारणा के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त करने में असफल रहा हो या ऐसे अनहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका हो।
1948 ए आई आर (मद्रास) 45
( 4) एक मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि भिन्न-भिन्न न्याय पीठो द्वारा किराया निर्धारण के संबंध में विभिन्न मत किराया के वाद में दिए गए जिससे परिस्थिति जटिल हो गई और किराया अदायगी में दुबारा चूक हुई। इस विवादित प्रश्न को निर्णय हेतु इसे बृहद पीठ के समक्ष निर्देशित किया गया। निर्देश का सकारात्मक उत्तर दिया गया कि दूसरी चूक होने पर भी किराए का निर्धारण होना चाहिए।
1998 (1) डी एन जे (राजस्थान) 111( बृहद पीठ)
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उच्च न्यायालय को निर्देश - धारा 113 सी.पी.सी.
न्यायालय को विधि के अनुसार अपना निर्णय देना होता है। न्यायालय विधि से बाध्य होते हैं। फिर विधि चाहे कितनी भी कठोर क्यों ना हो, न्यायालय विधि से परे नहीं जा सकते हैं। यदि किसी मामले में विधि की वैधानिकता के बारे में चाहे वह प्रथागत विधि हो, अधिनियम, अध्यादेश, आदि के रूप में अन्य कोई विधि, कोई प्रश्न अथवा उस संबंध में कोई संदेह उत्पन्न हो जाए तो वाद के अंतिम निपटारे के पूर्व उसका समाधान आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो इससे न्याय के सिद्धांत विफल हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। इसी कारण संहिता में "निर्देश" Reference) की आवश्यक व्यवस्था की गई है। संहिता की धारा 113 इस प्रकार उपबंधित की गई है - -
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धारा 113 सिविल प्रक्रिया संहिता - उच्च न्यायालय को निर्देश - उन शर्तो और परिसीमाओ के अधीन रहते हुए, जो विहित की जाए, कोई भी न्यायालय मामले का कथन करके उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित कर सकेगा और उच्च न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे;
परंतु जहां न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके समक्ष लंबित मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम अथवा किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम मैं अंतर्विष्ट किसी उपबंध कि विधिमान्यता के बारे में ऐसा प्रश्न अंतरवलीत है, जिसका अवधारण उस मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है और उसकी यह राय है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश, विनियम या उपबंध अविधिमान्य या अपरिवर्तनशील है, किंतु उस उच्च न्यायालय द्वारा जिसके वह न्यायालय अधिनस्थ है, या उच्चतम न्यायालय द्वारा इस प्रकार घोषित नहीं किया गया है, वहां न्यायालय अपनी राय और उसके कारणों को ऊपवर्णित करते हुए मामले का कथन करेगा और उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित करेगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा में "विनियम" बंगाल, मुंबई या मद्रास संहिता का कोई भी विनियम या साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) मैं या किसी राज्य के साधारण खंड अधिनियम में परिभाषित कोई भी विनियम अभिप्रेत है।
आदेश 46 नियम 6 के अनुसार -जहां की निर्णय के पूर्व किसी समय वह न्यायालय में जिसमें की वादसंस्थित किया गया था यह संदेह करता है कि क्या वह वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं, वहां वह वाद की प्रकृति के बारे में संदेह के लिए अपने कारणों के कथन सहित अभिलेख को उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर सकेगा।
आदेश 46 नियम 7 के अनुसार- जहां कि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि उसका अधीनस्थ कोई न्यायालय यह गलत धारणा करने के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है या प्रसंज्ञेय नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयोग करने में असफल रहा है या ऐसे अनिहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका है, वहां वह जिला न्यायालय अभिलेख को उच्च न्यायालय के समक्ष आदेश हेतु प्रेषित कर सकेगा।
इस प्रकार कोई भी मामला निम्न अवस्थाओं में उच्च न्यायालय को उसके राय हेतु निर्दिष्ट किया जा सकता है --
(1) जहां किसी मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश अथवा विनियम की मान्यता के संबंध में कोई प्रश्न अंतर्गस्त हो।
(2) जहां किसी वाद के लघु वाद न्यायालय द्वारा
प्रसंज्ञेय होने अथवा नहीं होने के संबंध में किसी प्रकार का संदेह हो।
(3) जहां जिला न्यायालय का अधीनस्थ कोई न्यायालय इस गलत धारणा के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त करने में असफल रहा हो या ऐसे अनहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका हो।
निर्देश संबंधी प्रक्रिया आदेश 46 सिविल प्रक्रिया संहिता मैं उपबंधित की गई है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय--
(1) गोवा उच्च न्यायालय के मतानुसार केवल ऐसे ही मामलों को उच्च न्यायालय में निर्देशित किया जाएगा जिनकी डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं हो सकती हो।
1972 ए आई आर (गोवा) 3131
(2) जहां किसी वाद में पूर्ववर्ती आदेश में प्रकट दोष या कार्य लोचन मौजूद होता है तो वहां उक्त दोष या कार्य लोपन पुनर्विलोकन करने योग्य होता है।
1989 ए आई आर (बॉम्बे) 309
(3) एक मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि जहां जिला न्यायालय का अधीनस्थ कोई न्यायालय इस गलत धारणा के कारण की वाद लघुवाद न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञेय है अथवा नहीं है, अपने में विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त करने में असफल रहा हो या ऐसे अनहित क्षेत्राधिकार को प्रयुक्त कर चुका हो।
1948 ए आई आर (मद्रास) 45
( 4) एक मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि भिन्न-भिन्न न्याय पीठो द्वारा किराया निर्धारण के संबंध में विभिन्न मत किराया के वाद में दिए गए जिससे परिस्थिति जटिल हो गई और किराया अदायगी में दुबारा चूक हुई। इस विवादित प्रश्न को निर्णय हेतु इसे बृहद पीठ के समक्ष निर्देशित किया गया। निर्देश का सकारात्मक उत्तर दिया गया कि दूसरी चूक होने पर भी किराए का निर्धारण होना चाहिए।
1998 (1) डी एन जे (राजस्थान) 111( बृहद पीठ)
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